मेरे मायनों में शिक्षक वह होता है जो आपको जीवन जीने की विद्या सिखाता है. किसी बच्चे के लिए सबसे पहली शिक्षिका उसकी मां होती है. वही उसे शिक्षक का आभास कराती है. एक समाज दो लोगों से मिलकर बनता है, ‘स्त्री और पुरुष’ एक अच्छे समाज का निर्माण तब होता है जब स्त्री और पुरुषों को समान अधिकार मिलें.
हमारे देश में स्त्री समाज सदियों से शिक्षा से वंचित रहा है, जब धार्मिक अंधविश्वास, रुदिवाद, अस्पृश्यता, दलितों और खासतौर से सभी वर्गों को महिलाओं पर मानसिक और शारीरिक अत्याचार अपने चरम पर थे. बाल-विवाह, सती प्रथा, बेटियों को जन्मते ही मार देना, विधवा स्त्री के साथ तरह-तरह के अनुचित व्यवहार, अनमेल विवाह, बहुपत्नी विवाह आदि प्रथाएं समाज में व्याप्त थीं. समाज में ब्राह्मणवाद और जातिवाद का बोलबाला था. ऐसे समय में मां सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले का इस अन्यायी समाज और उसके अत्याचारों के खिलाफ खड़े हो जाना एक क्रांति का आगाज था.
मां सावित्रीबाई फुले ने अपने निस्वार्थ प्रेम, सामाजिक प्रतिबद्धता, सरलता तथा अपने अनधक-सार्थक प्रयासों से महिलाओं और शोषित समाज को शिक्षा पाने का अधिकार दिलवाया. मां सावित्रीबाई फुले ने धार्मिक अंधविश्वास व रूड़ियां तोड़कर निर्भयता और बहादुरी से घर-घर, गली-गली घूमकर सम्पूर्ण स्त्री व दलित समाज के लिए शिक्षा की कान्ति ज्योति जलाई, धर्म-पंडितों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये, यहां तक कि उन पर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया. मां सावित्रीबाई द्वारा लड़कियों के लिए चलाए गए स्कूल बन्द कराने के लिए अनेकों प्रयास किए जाते थे. मां सावित्रीबाई डरकर घर बैठ जाएं. इसलिए उन्हें उच्च वर्गीय द्वारा अनेक विधियों से तंग किया जाता था. एक बार तो उनके ऊपर एक व्यक्ति द्वारा शारीरिक हमला भी किया दिया. तब मां सावित्रीबाई फुले ने बड़ी बहादुरी दिखाई और उस व्यक्ति का मुकाबला करते हुए उसे दो तीन थप्पड़ कसकर जड़ दिए. थप्पड़ खाकर वह व्यक्ति इतना शर्मशार हो गया कि फिर कभी उन्हें स्कूल जाने से रोकने का प्रयास नहीं किया.
मां सावित्रीबाई फुले ने अपने अथक प्रयासों द्वारा शिक्षा पर षड्यंत्रकारी तरीके से एकाधिकार जमाए बैठा ऊंची जमात की जमीन हिला डाली. मां सावित्रीबाई को देश की पहली भारतीय स्त्री-अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल है. मां सावित्रीबाई फुले न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया अपितु भारतीय स्त्री की दशा सुधारने के लिए उन्होंने 1852 में महिला मण्डल का गठन कर भारतीय महिला आन्दोलन की अगुवाई भी की. इस महिला मण्डल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ स्त्रियों को तथा अन्य समाज को मोर्चाबन्द कर समाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया.
उस समय में हिन्दू स्त्री के विधवा होने पर उसका सिर मूंड दिया जाता था. मां सावित्रीबाई फुले ने नाईयों से विधवाओं के ‘बाल न काटने का अनुरोध करते हुए आन्दोलन चलाया जिसमें काफी संख्या में नाईयों ने भाग लिया और विधवा स्त्रियों के बाल न काटने की प्रतिज्ञा ली. इतिहास गवाह है कि भारत क्या पूरे विश्व में ऐसा सशक्त आन्दोलन नहीं हुआ जिसमें औरतों के ऊपर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचार के खिलाफ स्त्रियों के साथ पुरुष जाति प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हो.
इतिहास गवाह है कि हमारे समाज में स्त्रियों की कीमत एक जानवर से भी कम थी. स्त्री के विधवा होने पर उसके परिवार के पुरुष जैसे देवर, जेट, ससुर व अन्य सम्बन्धियों द्वारा उसका शारीरिक शोषण किया जाता था. जिसके कारण यह कई बार मां बन जाती थी. बदनामी से बचने के लिए विधवा या तो आत्महत्या कर लेती थी, या फिर अपने अवैध बच्चे को मार डालती थी. अपने अवैध बच्चे के कारण वह खुद आत्महत्या न करें तथा अपने अजन्मे बच्चे को भी ना मारे, इस उद्देश्य से मां सावित्रीबाई फुले ने भारत का पहला ‘बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह’ तथा निराश्रित असहाय महिलाओं के लिए अनाथाश्रम खोला. स्वयं सावित्रीबाई फुले ने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ‘ब्राह्मण’ स्त्री काशीबाई जो कि विधवा होने के बाद भी मां बनने वाली थी को आत्महत्या करने से रोककर उसकी प्रसूति अपने घर में करवाकर उसके बच्चे यशवंत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया. दत्तक पुत्र यशवंत राय को खुद पाल-पोसकर डॉक्टर बनाया.
उस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था मां सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी, अनाथालय के प्रवेश द्वार पर मां सावित्रीबाई ने एक बोर्ड टंगवा दिया, जिस पर लिखा था, ‘विधवा बहने, यहां आकर गुप्त रीती से और सुरक्षित तरीके से अपने बालक को जन्म दे सकती हैं, आप चाहे तो अपने बालक को ले जा सकती है या यहां रख सकती है आपके बालक को यहाँ अनाथाश्रम एक मां की तरह रखेगा और उसकी रक्षा करेगा’ एक-दो वर्षों में ही इस आश्रम में सौ से ज्यादा विधवाओं ने अपने नाजायज बच्चों को जन्म दिया, मां सावित्रीबाई फुले का जीवन एक ऐसी मशाल है, जिन्होंने स्वयं प्रज्वलित होकर भारतीय नारी को पहली बार सम्मान के साथ जीना सिखाया. मां सावित्रीबाई के प्रयासों से सदियों से भारतीय नारियां जिन पुरानी कुरीतियों से जकड़ी हुई थी उन्होंने उन बंधनों से उनको मुक्त कराया तथा पहली बार भारतीय नारी ने पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर खुली हवा में सांस ली. महिलाओं को उनके सानिध्य में शिक्षा का अधिकार मिला.