विगत दिनों बहुजन राजनीतिक स्पेस में दो घटनाएँ घटित हुई, जिस पर सोशल मीडिया में काफी चर्चा रही. पहली घटना भीम आर्मी चीफ और आजाद समाज पार्टी प्रमुख चन्द्र शेखर आजाद को लेकर विदेश में अध्ययन कर रही एक छात्रा रोहिणी घावरी द्वारा सोशल मीडिया एक्स पर किया गया पोस्ट है, हालांकि रोहिण ने अपनी पूरी पोस्ट में किसी का नाम नही लिखा, लेकिन पोस्ट के साथ लगाये गये चैट्स और उसकी भाषा से साफ संकेत मिलता है कि यह प्यार, धोखे अथवा भावानात्मक रिश्ते, विवोहत्तर संबंधों के बारे में था, हालांकि अब एक्स पर यह पोस्ट नहीं है, संभव है कि रोहिणी ने उसे हटा लिया हो, लेकिन इससे जो सन्देश जाना चाहिये, वह तो चला हो गया, जितना ‘डैमेज‘ होना था, वह भी हो गया, पोस्ट हट सकता है, लेकिन उसके स्क्रीन शॉटस वायरल हो रहे हैं और होते रहेंगे.
बेहतर होता कि चंद्र शेखर आज़ाद इस बारे में खुद स्पष्टीकरण देते, जिससे इस पर उनका पक्ष भी लोगों के सामने आ जाता और लोग खुद निर्णय कर पाते कि सच्चाई क्या है? लेकिन तमाम मुद्दों पर बोलने वाले चंद्रशेखर आजाद ने इस मामले में चुप्पी साधे रखी.
आप कहेंगे कि यह नितांत निजी मसला है, आप यह भी कह सकते है कि यह उनका आपसी सहमति का मामला है, मेरी भी इस बात से सहमति है मगर सार्वजनिक जीवन में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता है, खास तौर पर जब आप पॉलीटिकल हों, सहमति के सवाल पर भी मेरी सहमति है, लेकिन सवाल यह है कि क्या विवाहेत्तर संबंधों में भी सहमति स्वीकार्य हैं.
वैसे तो इस प्रकार की नैतिकताएं अब अप्रासांगिक ही है, शायद लोगों को इनसे अब कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. मैने सोशल मीडिया पर पढा कि बहुत से लोग यह कह रहे है कि जब लड़की को पता था कि नेताजी शादीशुदा है, यहाँ तक कि बच्चा शुदा है, फिर भी क्यों उन्होंने उसने सम्पर्क बनाया ? यह पितृसत्तात्मक समाज की सबसे प्रचलित अवधारणा है. जिसमें महिला को ही दोषी ठहरा देने की प्रवृत्ति दिखती है, ऐसे लोग पीडिता के चरित्र पर भी सवाल उठाते है और उल्टा उसी पर आरोप मढ़ देते हैं.
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि केवल बहुजन नेताओं से अतिरिक्त नैतिकता की उम्मीद क्यों की जानी चाहिये? क्या वे इंसान नहीं है, क्या वे विचलित नहीं हो सकते? जब सारे समाज में यह चल रहा है तो वे भी इसी तरह के हो सकते है, इसमें गलत क्या है, ऐसा भी लोग लिख रहे हैं.
मेरा यह मानना है कि जब आप सार्वजनिक जीवन में आते है तो आपका निजी कुछ भी नहीं बचता है, जिन बातों, मुद्दों, मूल्यों और विचारों के लिये आप जीते हैं, लड़ते हैं तो आपको पॉलीटिकली करेक्ट होने की ज़रूरत है, आपको यह भी देखना होता है कि लाखों करोड़ों लोग आपको आदर्श के रूप में देखते है तो, यह जकर सुनिश्चित कीजिये कि आप आदर्श स्थिति को बनाये रखें, ताकि आपके किसी व्यक्तिगत कृत्य से आन्दोलन को नुकसान न पहुंचे. रोहिणी-चंद्रशेखर प्रकरण फिलहाल भले ही समाप्त नजर आये लेकिन इसका असर जिसे दुष्प्रभाव कहना चाहिये,लम्बे समय तक बना रह सकता है।
अब आते हैं दूसरी महत्वपूर्ण घटना पर जिसमें बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमों बहन कुमारी मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बसपा का उत्तराधिकारी बनाया है, अधिकांश लोगो ने इसका स्वागत किया है, क्योंकि उन्हें पहले से पता था कि यह होना ही था, लेकिन कुछ आवाजे आलोचनात्मक थी और उन्होंने कहा कि यह वंशवाद है या परिवारवाद है.
यह कुछ लोग मान्यवर कांशीराम और बहन मायावती के वे पुराने भाषण निकाल लाये हैं जिसमें उन्होने अपनी राजनीति से अपने परिजनों को दूर रखने की बात कही थी. कुछ लोगो ने कहा कि फिर क्या फर्क है बाकी पार्टियों और बहुजन पार्टियो में? वहाँ भी पिता-पुत्र, भाई-भतीजा, भाई-भाभी सब भरे पड़े है, कुछ पार्टियाँ तो परिवारों की प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियाँ ही है, भारत जैसे पारम्परिक देश में उत्तराधिकार भी पुत्राधिकार ही रहा है. यह समाज हो, राज हो, व्यापार वाणिज्य हो, सम्पति देने का मामला हो, सबमें यही चलता रहा है, जब पूरा समाज ही ऐसा हो तो उसमे कोई एक अकेला अलग कैसे जायेगा. जब पूरी राजनीति ही वंशवाद से भरी हो तो बहन जी उससे कैसे अछुती रहेगी? जैसे सब है वैसे ही अन्य भी हो जाते हैं. यह भारतीय राजनीति का आवश्यक गुण है, जिसे कुछ लोग दुर्गुण भी कहेगे. मुझे बहन जी के निर्णय में कुछ भी अनपेक्षित नहीं लगा और न ही इसमें कुछ गलत या सही लगता है. यह आपके नजरिये से तय होगा कि आप कहाँ खड़े हो कर देख रहे हैं, अगर आप बसपा विरोध का चश्मा लगा कर देखेंगे तो निर्णय से विरोध होगा, अगर आप भक्तिभाव से देखेंगे तो इसमें महान रणनीति नज़र आयेगी. यह हमारी दृष्टिपर निर्भर करता है.
महत्वपूर्ण यह है कि निरन्तर जनाधार खो रही और सत्ता से दूर जा रही पार्टी को अगर आकाश आनंद वापस सत्ता के केंद्र में ले आते हैं तो बहनजी के इस निर्णय को एक मास्टर स्ट्रोक माना जायेगा, अब यह साबित करना आकाश की मेहनत पर निर्भर करेगा, बहनजी ने अपनी पारी खेल ली है और उत्तराधिकारी की घोषणा के साथ उनकी भूमिका बसपा में निश्चित रूप से कम होना शुरू हो जायेगी. वैसे भी उत्तर भारत की बहुजन राजनीति अब युवा हाथों में है, चन्द्रशेखर आजाद हो, चिराग पासवान हो, आकाश आनंद हो अथवा अन्य पार्टियों में उभर रहे दलित बहुजन युवा हो, वे ही अगले कुछ दशकों तक राजनीति में बने रहेंगे, उन्हें ही तय करना है कि वे बाबा साहब अम्बेडकर व अन्य बहुजन नायक नायिकाओं के सपने का भारत बनाने की दिशा में किस तरह काम करते हैं. मेरा दलित बहुजन मूलनिवासी विचार सरणी से जुड़े साथियों से भी अनुरोध है कि वे व्यक्तियों के बजाय प्रवृतियों की आलोचना करें ताकि यह व्यक्तिगत राग द्वेष का मामला न बन कर रह जाये.
(लेखक -भंवर मेघवंशी; ये लेखक के अपने विचार हैं)