38.2 C
New Delhi
Monday, June 9, 2025

ओपिनियन: महापुरुष किसी एक जाति के नहीं होते

सब अपने भाटों की पौथियाँ लिए आ रहे है, दावे प्रतिदावे किये जा रहे है, इतिहास बनाने की हवा हवाई इस कवायद से हमारा वर्तमान कलुषित हो रहा है, इस खतरे पर दोनों समाजों को सोचना पड़ेगा कि यह टकराव कहीं स्थायी दुराव न बन जाये.

महापुरुषों और महास्त्रियों का जातिय विभाजन अब खतरनाक दौर में पहुंच चुका है, अब हर आदर्श व्यक्तित्व को जातिगत सीमाओं में आबद्ध किया जा चुका है.

महामानवों की जातिय घेराबंदी के हम सब बराबर के अपराधी है, कोई भी इससे बरी नहीं है, हम सबने महापुरुषों को अपनी-अपनी जातियों तक सीमित करने का काम किया है.

दरअसल यह पूरा अभ्यास ही इसलिए है कि हम जातिय हीनता या श्रेष्ठता की ग्रंथि से ग्रन्थित है ,मैं भी आरएसएस छोड़ने के बाद धार्मिक श्रेष्ठता से थोड़ा नीचे उतरा और जातिय व उपजातीय श्रेष्ठता की परियोजना में लग गया.

इस मूर्खतापूर्ण अभ्यास से कईं तरह की ऐसी चीजें निकली या निकाली गई, जिस पर आज सोचता हूँ तो खुद का उपहास करने की इच्छा होती है या खुद को आलोचित करने की भावना बनती है.

हम सब एक व्यापक समाज का हिस्सा है, इसी ग्रह के, इसी धरती के वासी, हम मंगल ग्रह से तो नही आते है, हमारी विचार प्रक्रिया इसी समाज से बनती है, हम एक किस्म की कंडीशनिंग के शिकार हो जाते है, हम हर मसीहा और नायक को खुद से और खुद की जाति से जोड़ लेते हैं.

1940 से लेकर 1980 तक की हिंदू समुदाय की विभिन्न जातियों के इतिहास लेखन को देखकर हम इस प्रक्रिया को ठीक से समझ सकते हैं, इन चार दशकों में दलित व आदिवासी तथा शुद्र जातियों के जितने भी इतिहास ग्रंथ रचे गये, उनका मूल स्वर यह रहा है कि हम पहले ब्राह्मण थे अथवा क्षत्रिय थे, कहने का भाव यह था कि सक्षम से खुद को जोड़ लेना ताकि खुद सबल महसूस कर सके. यह एक प्रकार से जातिय हीनता की ग्रंथि से मुक्त होने का प्रयास रहा है.

1980 के बाद का इतिहास लेखन महापुरुषों को अपनी जाति में लाने का रहा, इसके जरिये सबसे पहले तो भारतीय आदर्शों, नायकों और महापुरुषों की जातियां खोजी गई, जिनका पता था, उसके लिए कुछ खास नहीं करना पड़ा, अपनी जाति का लेबल उक्त महापुरुष पर तुरन्त चस्पा कर दिया, जो लोग देवता या अवतार अथवा लोकदेवता किस्म के महापुरुष थे, उनको अपनी-अपनी जाति की गोलबंदी में लाने का प्रयास हुआ है.

दरअसल यह उन महामानवों के जातिकरण से ज्यादा स्वयम की जाति को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास मात्र रहा है, यह आज भी जारी है.

मैं इसलिए साधिकार यह लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं इस किस्म के इतिहास लेखन परियोजनाओं का सक्रिय हिस्सा रहा हूँ, लगभग डेढ़ दशक पूर्व ऐसा ही लेखन मैंने भी किया, जिसमें विभिन्न महापुरुषों के जातिकरण का काम हुआ है, आज वह सब व्यर्थ सी कवायद लगती है, लेकिन उस वक़्त तो काफी गंभीरता से यह काम किया गया था.

आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो खुद पर हंसने का और आक्रोशित होने का मन करता है, आज तो बुद्ध, कबीर, रैदास, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई, राम, कृष्ण, परशुराम, तेजाजी, देवनारायण, रामदेवजी, गांधी, पटेल, नेहरू, बाबासाहेब अम्बेडकर, लोहिया, जेपी सबको जातियों में कैद कर लिया गया है.

हर कोई इन पर दावा ठोंक रहा है, हर किसी को इनको अपनी जाति के घेरे में लेने की जल्दी है, हालात यह हो चुके हैं कि अब गांधी को चालाक बनिया कहा जा रहा है तो अम्बेडकर को सिर्फ महार, महाराणा प्रताप की जयंती अब विशेष समुदाय की जिम्मेदारी बन गई है तो शिवाजी अब सिर्फ मराठों के होते जा रहे हैं.

राजस्थान में ताजा विवाद लोकदेवता रामसा पीर को लेकर है जिसमें लोकप्रचलित बात यह है कि वे सदेह अवतरित हुए थे, मतलब उनके कोई लौकिक माता पिता न थे, लेकिन लोक में मान्यता यह भी है कि वे तंवर वंशीय क्षत्रिय अजमल जी के पुत्र थे, इससे इतर आध्यात्मिक जगत में यह किंवदंती सदैव विद्यमान रही कि वे मेघ रिख परम्परा के संत सायर के पुत्र थे. दोनों बातें अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में मौजूद रही, लेकिन विवाद का विषय कभी नहीं बना, अब सोशल मीडिया ने यह कर दिखाया है, दो समुदायों की मान्यताएं टकराव का कारण बन रही है.

एक वो समुदाय जो रामदेव जी को मानता है और पूजता है, वह उन्हें अपने समुदाय का मानता है, जबकि दूसरा वो समुदाय है जो उनको न मानता, न पूजता है, न उनके मोहल्लों में उनके मन्दिर है, न उनकी आध्यात्मिक प्रक्रिया वो अपनाते है, मगर सक्षम समुदाय है, वर्णाश्रम धर्म में यह श्रेष्ठता को प्राप्त समुदाय है, हर दृष्टि से आज भी मजबूत है, उनका भी दावा है कि रामदेव पीर उनके घराने में पैदा हुए थे.

600 साल पहले कौन कहाँ पैदा हुआ, क्या था, कैसा था, उसका कोई भी अधिकृत प्रमाण किसी के पास नहीं बचा है, सब अपने भाटों की पौथियाँ लिए आ रहे है, दावे प्रतिदावे किये जा रहे है, इतिहास बनाने की हवा हवाई इस कवायद से हमारा वर्तमान कलुषित हो रहा है, इस खतरे पर दोनों समाजों को सोचना पड़ेगा कि यह टकराव कहीं स्थायी दुराव न बन जाये.

हालांकि मैं स्वयं भी इस जातिय इतिहास लेखन परियोजना में शरीक रहा हूँ, मेरी इस संबंध में किताब भी आई है, पर आज मैं कहना चाहता हूं कि स्वर्णिम अतीत के इतिहास उत्खनन का यह काम सर्वथा निर्रथक रहा, इससे कुछ भी हासिल न हुआ और न ही होगा, बेहतर होगा कि हम महामानवों को जातियों से मुक्त कर दें, न महाराणा प्रताप सिर्फ क्षत्रिय थे और न ही तथागत बुध्द महज शाक्य और न ही रामदेव जी सिर्फ तंवर अथवा मेघवाल.

हम महापुरुषों को उनकी महानता के साथ सिर्फ महापुरुष ही रहने दें, अपनी-अपनी जातिय क्षुद्रता व श्रेष्ठता को अपने तक ही सीमित रखें, रामदेव जी की महानता का परिचय देने के लिए किसी मेघवाल महासभा या करणी सेना की जरूरत नहीं है, रामदेव जी जातियों से ऊपर है, वे वहां है जहां तक जातियों की कभी पहुंच नहीं रही है और न ही रहेगी.

जातिय नफरत की हर गलती को मिलकर रोकना होगा, गलती किसी से भी हुई हो, बहुत सारी बातें भूलकर आगे बढ़ना होगा, कभी-कभी भूलना भी राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता अखंडता को मजबूत करता है.

इतिहास अगर हमारे आज और भविष्य के लिए खतरनाक हो तो उस इतिहास को दफन कर देना ही उचित होगा.

(लेखक: भंवर मेघवंशी; यह लेखक के अपने विचार हैं)

Download Suchak App

खबरें अभी और भी हैं...

सामाजिक परिवर्तन दिवस: न्याय – समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का युगप्रवर्तक प्रभात

भारतीय समाज की विषमतावादी व्यवस्था, जो सदियों से अन्याय और उत्पीड़न की गहन अंधकारमयी खाइयों में जकड़ी रही, उसमें दलित समाज की करुण पुकार...

धर्मांतरण का संनाद: दलित समाज की सुरक्षा और शक्ति

भारतीय समाज की गहन खोज एक मार्मिक सत्य को उद्घाटित करती है, मानो समय की गहराइयों से एक करुण पुकार उभरती हो—दलित समुदाय, जो...

‘Pay Back to Society’ के नाम पर छले जाते लोग: सामाजिक सेवा या सुनियोजित छल?

“Pay Back to Society” — यह नारा सुनने में जितना प्रेरणादायक लगता है, व्यवहार में उतना ही विवादास्पद होता जा रहा है। मूलतः यह...

प्रतिभा और शून्यता: चालबाज़ी का अभाव

प्रतिभा का वास्तविक स्वरूप क्या है? क्या वह किसी आडंबर या छल-कपट में लिपटी होती है? क्या उसे अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के...

सतीश चंद्र मिश्रा: बहुजन आंदोलन का एक निष्ठावान सिपाही

बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और कानूनी सलाहकार सतीश चंद्र मिश्रा पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। कुछ लोग उनके बीएसपी के प्रति...

राजर्षि शाहूजी महाराज से मायावती तक: सामाजिक परिवर्तन की विरासत और बहुजन चेतना का संघर्ष

आज का दिन हम सबको उस महानायक की याद दिलाता है, जिन्होंने सामाजिक न्याय, समता और बहुजन उन्नति की नींव रखी — राजर्षि छत्रपति...

मान्यवर श्री कांशीराम इको गार्डन: बहनजी का पर्यावरण के लिए अतुलनीय कार्य

बहनजी ने पर्यावरण के लिये Start Today Save Tomorrow तर्ज पर अपनी भूमिका अदा की है, अपने 2007 की पूर्ण बहुमत की सरकार के...

जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी: जातिगत जनगणना पर बहुजन विचारधारा की विजयगाथा

भारत की राजनीति में एक ऐतिहासिक क्षण आया है-जिसे बहुजन आंदोलन की सबसे बड़ी वैचारिक जीत के रूप में देखा जा सकता है. कैबिनेट...

कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा

बहनजी के दूरदर्शी नेतृत्व, बौद्ध धम्म के प्रति अनुराग और सामाजिक समावेश की अमर गाथा कुशीनगर—शांति और करुणा का वैश्विक केंद्र कुशीनगर, वह पावन धरती जहाँ...

बहनजी की दूरदृष्टि: लखनऊ हाई कोर्ट परिसर का भव्य निर्माण

भारत के इतिहास में कुछ ही व्यक्तित्व ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपनी दूरदृष्टि, दृढ़ संकल्प और समाज के प्रति समर्पण से युगों को प्रेरित...

साम्प्रदायिकता का दुष्चक्र और भारतीय राजनीति की विडंबना

भारतीय राजनीति का वर्तमान परिदृश्य एक गहन और दुखद विडंबना को उजागर करता है, जहाँ साम्प्रदायिकता का जहर न केवल सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न...

सपा की नीति और दलित-बहुजन समाज के प्रति उसका रवैया: एक गंभीर विश्लेषण

भारतीय सामाजिक संरचना में जातिवाद और सामाजिक असमानता ऐसी जटिल चुनौतियाँ हैं, जिन्होंने सदियों से समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर दलित-बहुजन समुदाय को हाशिए...