वो जब राजनीति में लाया गया था. वो जब भी मिथकों में जीता था और आज भी मिथकों में जीता है. उसको सुनहरे सपने देखने और उनको जीने की आदत है. जब वो राजनीति में आया तो उसने अपने नाम के साथ रावण लगाया. रावण एक मिथकीय चरित्र है और उसका वास्तविकता से कोई लेना देना नही है. लेकिन, अगर एक पल के लिए उसके चरित्र को वास्तविक मान भी लें तो उसका अनुसूचित जाति से तो कोई संबंध रहा ही नहीं. उसको हमेशा जनेऊधारी ब्राह्मण बताया जाता है. उसके ऐसे कोई कर्म भी नहीं दिखाए जाते जिनको अनुकरणीय या सराहनीय कहा जा सके.
ऐसे में खुद के नाम के साथ रावण जोड़ने का एक ही मतलब होता है खुद को राम के विरुद्ध दिखाना या उनके अनुयायी के विरुद्ध दिखाना. इसका राजनीति में कोई महत्त्व नहीं है. क्योंकि, राजनीति में आप किसी को भी नजरअंदाज करके नही चल सकते. वो भी उस देश में जब दो व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो लगभग 60 प्रतिशत राम-राम कहकर अभिवादन करते हैं.
यह विचारधारा सामाजिक जागरण एवं बदलाव के लिए तो अनुकूल हो सकती है. लेकिन, इसके सहारे आप राजनीति में सफल हो सकते हैं, ऐसा सोचना कोरी कल्पना मात्र है. बाद में खुद उसने अपने नाम के साथ से रावण शब्द हटा लिया.
अब उसने कुछ अन्य मिथकीय चरित्रों की तुलना की है. उसने खुद को एकलव्य और बहनजी (बसपा सुप्रीमो मायावती) को द्रोणाचार्य कहा है. ऐसे पात्रों से तुलना करना उसकी नासमझी को ही दर्शाता है. एकलव्य बनने के लिए बहुत कुछ गंवाना पड़ता है. जिस चीज के लिए आप जीवन भर संघर्ष करते हो, उसको पल भर में छोड़ देना पड़ता है जो चीज आपको सबसे ज्यादा प्रिय होती है. आप बिना एक क्षण सोचे उसको न्यौछावर कर देते हो. वास्तव में आपमे ये गुण नही है तो आपका एकलव्य होना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है.
आपने तो राजनीति में चमकने के लिए सारे स्तर गिरा दिए. बहनजी को द्रोणाचार्य कहना तब सही होता जब बहनजी ने कभी सार्वजनिक रूप से आपका नाम भी लिया हो. उन्होंने तो कभी नाम भी नहीं लिया तो अंगूठा कैसे मांगेंगी? हो सकता है कि आप मानते हो कि आपने बहनजी को देखकर राजनीति सीखी है लेकिन बहनजी ने कभी नहीं कहा कि गुरुदक्षिणा दो.
इन मिथकीय चरित्रों से बाहर निकलो महाराज.
(लेखक: सुधीर कुमार जाटव; यह लेखक के अपने विचार हैं)