नागपुर (महाराष्ट्र) के नजदीक एक छोटा कस्बा है जहां एक छावनी भी है. इसी नगर के बैल बाजार क्षेत्र में लक्ष्मणराव नाम के महार के घर एक लड़के का जन्म हुआ था जिसका नाम हरदास रखा गया, जिसे बाद में बाबू हरदास लक्ष्मण नगरकर के नाम से जाना गया. इसी व्यक्ति ने 18 वर्ष की आयु में “महारट्ठा” नाम से मराठी का साप्ताहिक पत्र भी निकाला.
18 वर्ष की उम्र होने के कारण कम आयु का संपादक होने का रिकॉर्ड भी इनके नाम है.
1921 में बाबासाहेब डाॅ.अंबेडकर के साथ सामाजिक आंदोलन में उतरे. बाबू हरदास का परिवार पढ़ा-लिखा था. पिता लक्ष्मण उरकुडा नगराले रेलवे विभाग में बाबू थे. उस समय देश में वर्णभेद और जाति भेद के कारण भीषण सामाजिक और आर्थिक विषमता फैली हुई थी. 1922 में महाराष्ट्र के अछूत संत चोखामेला के नाम पर उन्होंने एक छात्रावास शुरू किया. 1924 में उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस खरीदी थी और सामाजिक जागृति के लिये “मंडई महात्म्य” नामक किताब सामाजिक जागृति के लिये लिखी थी, साथ ही “चोखामेला विशेषांक” भी निकाला था. डाॅ.अंबेडकर के आंदोलनों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.
स्थानीय स्तर पर इन्होने कई संस्थाओं की स्थापना की. गरीब लोगों की समस्याओं को सुलझाया. 1930 के नासिक कालाराम मंदिर सत्याग्रह तथा 1932 में पूना पैक्ट के दौरान उन्होंने बाबासाहेब डाॅ.अंबेडकर के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
ब्राह्मण व्यवस्था से अछूतों को बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर ने बचाया. अत: इनके सम्मान में हरदास बाबू ने 1934 में “भीम विजय स्तंभ” नामक संस्था की स्थापना अपने सहयोगियों के साथ मिलकर की. इस संस्था के अध्यक्ष मागोजी रगारी और सचिव हरि चांदोरकर थे.
बाबू हरदास मध्य भारत (वर्तमान मध्यप्रदेश) की विधानसभा में 1935 में विधायक भी बने.
इनके मस्तिष्क में हमेशा एक बात रहती थी कि हमारा भी एक अभिवादन करने का तरीका होना चाहिए, जिससे स्वाभिमान झलके और शांति का प्रतीक भी लगे.
“जय भीम” का संबोधन पहली बार उनके मन में एक मुस्लिम व्यक्ति को देखकर आया. उस समय कार्यकर्त्ताओं के साथ घूमते हुये रास्ते में एक मुस्लिम को दूसरे मुस्लिम से “अस्सलाम-अलेकुम” कहते हुये सुना. जवाब में दूसरे व्यक्ति ने भी “अलेकुम-सलाम” कहा. इनका सोचना था कि बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर ने ईमानदारी और निष्ठा से अछूत, शोषित समाज के लोगों के जीवन को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें सामाजिक दास्तां, राजनैतिक परतंत्रता, आर्थिक विपन्नता तथा धार्मिक शून्यता के प्रति जागृत किया और अंधविश्वास, धार्मिक भेदभाव, जातिवाद और अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध लड़ना सिखाया ताकि ऊँच-नीच, छुआछूत और असमानता को समाप्त किया जा सके. इसलिए उन्होंने कार्यकर्त्ताओं से कहा, “मैं ‘जय भीम’ कहूँगा और आप ‘बल भीम’ कहिये. उस समय से ये अभिवादन शुरू हो गया, पर बाद में ‘बल भीम’ प्रचलन से गायब हो गया, केवल ‘जय भीम’ ही प्रचलन में रहा. 1933-34 में बाबू हरदास ने समता सैनिक दल को ‘जय भीम’ का नारा नागपुर में दिया. इस तरह ‘जय भीम’ हर जगह छा गया. बाबू हरदास जी के परिनिर्वाण पर श्रद्धांजलि देते समय बाबासाहब ने कहा था, “बाबू हरदास के रूप में मेरा दाहिना हाथ चला गया.”
(लेखक: सत्यवीर सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)