आज के पढ़े लिखे भारत में लिंचिंग का विचार कहाँ से आया होगा. इसके लिए कही अमेरिका या लन्दन जाने की ज़रुरत नही है. देश मे तो भगवान की दया से लिंचिंग के जश्न सदियों तक मनाये गए है. सती प्रथा क्या थी, क्या धर्म के अंधे समाज ने जिन औरतों के पति किसी भी कारणवश मर गए उनको धतुरा पिला-पिला के लिंचिंग नही की?
अब कोई ये ना कह देना की वो तो अपनी मर्जी से मरने के लिये आग मे धतुरा पीकर खुद बैठ जाती थी | आग की लपटो ने जब धतुरे के नशे को कम किया, तब वो चिखी भी थी, रोई भी थी, दर्द मे करहाई भी थी लेकिन लिंचिंग का जश्न मनाते समाज ने उनको अपने लठ और डण्डों के बल पर फिर से आग मे ढ़केला था.
डायन बताकर किसी विधवा और अकेली औरत की मिलकर लिंचिंग करना और बाद मे उनकी जमीन पर भगवान की दया से कब्जा करना आज भी तो खबर सुनने को मिल ही जाती है. ये लिंचिंग नाम का कलंक तो हमारी धरोहर रही है, बस इसके नाम अलग-अलग रहे है. लिंचिंग के और भी नाम है, यकीन ना हो तो उस बाप से पूछिये ज़िसकी बेटी की लिंचिंग दहेज के लालचियों ने कर दी है.
या उस दलित आदिवासी युवाओं के उन परिवार वालों से पूछिये ज़िसकी हत्या सिर्फ इसिलिये कर दी जाती है क्योकि उसने मुँछो पर ताव देना शुरू कर दिया था, घोड़ी पर बैठकर बारात निकाली थी, परीक्षा मे अव्वल आ गया था, पहलवानी मे किसी जातिवादी को पटक आया था या अपनी दिहाड़ी मजदुरी के पैसे मांगने पर गुस्सा आने पर कई जातिवादीयों ने बुरी तरह से मारा था.
लिंचिंग तो हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा है. पुलिस थानों की भी लिंचिंग देखनी है तो सत्य घटनाओं पर आधारित जय भीम फिल्म मे एक आदिवासी युवक की लिंचिंग भी देख सकते हो.
समाज आज भी लिंचिंग का समर्थन बड़े ही दुस्साहस के साथ करता ही जा रहा है, शायद इसिलिये ही देश की अधिकतर बलात्कार पीड़िता आत्महत्या करने की सोचती है और अमेरिका या लन्दन आदि मे अधिकतर बलात्कार पीड़िता पुलिस थाने मे F.I.R कराने के लिये जाती है. जब सीता की अग्नि परीक्षा यानि ज़िन्दा जलने की प्रेरणा या फिर कोई ऐरा-गैरा अगर सीता के चरित्र पर सवाल उठा दे, तो एक गर्भवती महिला तक को मरने के लिए जंगल मे छोड़ देते है.
इन्ही धार्मिक विचारों से भारत मे औरतों या लड़कियों को आत्महत्या नाम की सामाजिक लिंचिंग को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है. इसिलिये लिंचिंग पर झूठे आसु ना बहाए कोई, ये तुम्हारी सोच से मेल नही खाती. औरते तो अपनी साड़ी कम्पिटीशन और करवा चौथ से आगे सोचना ही नही चाहती, कमाल है.
(लेखक – एन दिलबाग सिंह: यह लेखक के निजी विचार हैं)