मिथक 1: उपवर्गीकरण केवल तभी लागू हो सकता है जब क्रीमी लेयर लागू हो
उपवर्गीकरण और क्रीमी लेयर दो अलग अवधारणाएँ हैं. एक समूह स्तर (जैसे जाति) पर लागू होती है, जबकि दूसरी व्यक्तिगत स्तर पर. दोनों अवधारणाओं पर ओबीसी के संदर्भ में और इंद्रा साहनी के निर्णय में विचार किया गया था. लेकिन इंद्रा साहनी जजमेंट ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह एससी/एसटी पर लागू नहीं होता. आप देख सकते हैं कि ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर लागू करने की अधिसूचना निकाली गई, लेकिन उपवर्गीकरण आज तक ओबीसी में भी लागू नहीं हुआ. इसलिए यह कहना कि उपवर्गीकरण और क्रीमी लेयर को साथ-साथ लागू करना ज़रूरी है, अदालतों द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है. दोनों स्वतंत्र रूप से लागू हो सकते हैं.
मिथक 2: क्रीमी लेयर एक आर्थिक मानदंड है
यह भी एक मिथक है. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि क्रीमी लेयर का उद्देश्य सामाजिक रूप से उन्नत व्यक्तियों को आरक्षण से बाहर करना है, और यह आर्थिक स्थिति की बजाय सामाजिक स्थिति पर आधारित है. दलितों के मामले में यह कहा गया कि आर्थिक स्तर ऊँचा हो जाने के बाद भी उनका सामाजिक स्तर बहुत नहीं बदलता. इसलिए क्रीमी लेयर को केवल आर्थिक मानदंड समझना गलत है और इसे ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) से तुलना नहीं करनी चाहिए. कोई भी दलित केवल अपनी आर्थिक या शैक्षिक स्थिति से सामाजिक रूप से उन्नत नहीं हो जाता. इसलिए दलितों में क्रीमी लेयर लागू नहीं की जा सकती.
आज ओबीसी में भी यह विवाद है कि संविधान संशोधन के बाद “पिछड़ा वर्ग” की परिभाषा सीधे संविधान में दी जा चुकी है, तो क्रीमी लेयर की बाध्यता अप्रासंगिक हो जाती है और वास्तव में इसे लागू करने की आवश्यकता नहीं है.
मिथक 3: क्रीमी लेयर एक कठोर और स्थायी रेखा है
इंद्रा साहनी जजमेंट ने साफ कहा कि क्रीमी लेयर एक लचीली रेखा है. इसे इस प्रकार नहीं खींचा जा सकता कि कोई भी आरक्षण लाभ न ले पाए. पहला उद्देश्य है – विभिन्न समूहों (एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य) के बीच समानता. दूसरा उद्देश्य है – प्रत्येक समूह के भीतर असमानताओं को दूर करना. अगर क्रीमी लेयर के कारण बड़ी संख्या में लोग आरक्षण से वंचित हो जाएँ और पद खाली रह जाएँ, तो क्रीमी लेयर को ढीला किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, यदि 100 पदों में से 70 क्रीमी लेयर वाले भर सकते हैं और 30 पद खाली रह जाते हैं, तो केवल क्रीमी लेयर के आधार पर उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता. इसी कारण एससी/एसटी में क्रीमी लेयर लागू करना व्यावहारिक नहीं है.
मिथक 4: उपवर्गीकरण के लिए जाति जनगणना आवश्यक है
हाँ, उपवर्गीकरण के लिए आँकड़े ज़रूरी हैं. लेकिन यह कहना कि इसके लिए जाति जनगणना अनिवार्य है, सही नहीं है. ओबीसी के विपरीत, एससी/एसटी की उपजातियों के आँकड़े हर जनगणना में दर्ज होते रहे हैं और उपलब्ध हैं. तमिलनाडु की जनार्दन समिति रिपोर्ट, कर्नाटक की सदाशिव आयोग रिपोर्ट और अन्य आयोगों ने विभिन्न उपजातियों की जनसंख्या का सटीक अनुमान प्रस्तुत किया है. केवल संस्थागत प्रतिनिधित्व (जैसे सरकारी नौकरियों में किस उपजाति का कितना हिस्सा है) का आकलन समिति द्वारा किया जा सकता है. इसलिए जाति जनगणना की कोई आवश्यकता नहीं है.
मिथक 5: आँकड़े उपवर्गीकरण की ज़रूरत नहीं दिखाते
यह पूरी तरह गलत है. कुछ अध्ययन केवल कुल कर्मचारियों की संख्या देखकर यह दावा करते हैं कि प्रतिनिधित्व पर्याप्त है. लेकिन सच्चाई यह है कि वे अधिकतर ग्रुप D नौकरियों में हैं, जबकि ग्रुप A और ग्रुप B में उनकी उपस्थिति बहुत कम है. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि प्रभावी प्रतिनिधित्व ज़रूरी है – यानी निर्णय लेने वाली उच्च नौकरियों में भागीदारी. आँकड़े साफ दिखाते हैं कि दलित समाज के एक बड़े हिस्से को उच्च स्तर की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.
मिथक 6: उपवर्गीकरण से दलितों में विभाजन होगा
यह गलत है. समाजशास्त्रीय अध्ययनों और ब्रिटिश काल की जनगणनाओं में यह दर्ज है कि एससी के भीतर भी सामाजिक श्रेणियाँ (hierarchy) मौजूद हैं. उदाहरण के लिए – राइट एससी सामाजिक रूप से ऊँचे माने जाते हैं और लेफ्ट एससी उनसे विवाह तक नहीं करते. राइट एससी, लेफ्ट एससी पर भी अस्पृश्यता थोपते हैं. इस तरह लेफ्ट एससी को दोहरी भेदभाव का सामना करना पड़ता है – ऊपरी जातियों से भी और कुछ उच्च एससी जातियों से भी. इसलिए उपवर्गीकरण से विभाजन पैदा नहीं होगा बल्कि पहले से मौजूद विभाजन को स्वीकार कर वंचित उपजातियों को उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा.
मिथक 7: उपवर्गीकरण केवल नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण तक सीमित है
यह गलत है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उपवर्गीकरण अनुच्छेद 14 (समानता और न्याय) से आता है, न कि केवल अनुच्छेद 15 और 16 से (जो शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की बात करते हैं). इसलिए उपवर्गीकरण लागू किया जा सकता है –
- बजट आवंटन में,
- पेशे आधारित योजनाओं में,
- और खास तौर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व (पंचायत, नगर परिषद, विधायक, सांसद आदि) में
असल मायने में उपवर्गीकरण की ताक़त यहीं है
मिथक 8: उपवर्गीकरण मेरिट के खिलाफ है
यह तर्क भी गलत है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण अपने आप में एंटी-मेरिट नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है. कई अध्ययनों से साबित हुआ है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित उम्मीदवारों के बीच कटऑफ में बहुत मामूली अंतर होता है और यह वास्तविक कार्यकुशलता से जुड़ा नहीं होता. इसलिए यह कहना कि उपवर्गीकरण से कम योग्यता वाले उम्मीदवार आ जाएँगे, निराधार है.
मिथक 9: उपवर्गीकरण का मतलब आरक्षण हटाना है
यह भी गलत धारणा है. उपवर्गीकरण का मतलब है कि आरक्षण सभी उपजातियों को उनकी आबादी के अनुपात में मिले. यह केवल कुछ उपजातियों के एकाधिकार को रोकता है. आरक्षण किसी से छीना नहीं जाता, बल्कि सभी में न्यायपूर्ण रूप से बाँटा जाता है.
मिथक 10: उपवर्गीकरण से सीटें खाली रह जाएँगी (NFS – Not Found Suitable)
यह भी गलत है. आज, जब उपवर्गीकरण लागू नहीं है, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य नियुक्तियों में अक्सर आरक्षित उम्मीदवारों को “Not Found Suitable” कहकर बाहर कर दिया जाता है. यह असल में संरचनात्मक बाधाएँ हैं, जिन्हें दूर करना ज़रूरी है. जब ये बाधाएँ हटेंगी और उपवर्गीकरण लागू होगा, तो सभी उपजातियों को समान अवसर मिलेगा. इसलिए यह कहना कि उपवर्गीकरण से सीटें खाली रह जाएँगी, सही नहीं है.
(लेखक: नेत्रपाल; नेत्रपाल आईआईटी मद्रास और आईआईएम बैंगलोर के पूर्व छात्र हैं. उन्होंने यूपीएससी में 236वीं रैंक हासिल की है और वर्तमान में आयकर आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उस संगठन के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते जहाँ वे कार्यरत हैं.)