भारतीय सामाजिक संरचना में जातिवाद और सामाजिक असमानता ऐसी जटिल चुनौतियाँ हैं, जिन्होंने सदियों से समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर दलित-बहुजन समुदाय को हाशिए पर धकेल रखा है। इस संदर्भ में, राजनीतिक दलों की नीतियाँ और उनके कार्यकलाप सामाजिक परिवर्तन की दिशा में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की प्रमुख आदरणीया बहनजी ने आज दिनांक 20.04.2025 को एक बार फिर समाजवादी पार्टी (सपा) की दलित-बहुजन समाज के प्रति असंवेदनशीलता, विश्वासघात, घोर जातिवादी व नफरती कृत्यों को उजागर कर दिया। उनके बयान में सपा की नीतियों में अंतर्निहित खोट, दलित-बहुजन समाज के संवैधानिक अधिकारों की उपेक्षा, और बीएसपी के समतामूलक समाज के मिशन को कमजोर करने के प्रयासों को रेखांकित किया गया है। यह लेख सपा की नीतियों, उसके कार्यों, और दलित-बहुजन समाज के प्रति उसके घृणित दृष्टिकोण का एक गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत करता है, साथ ही बीएसपी के सामाजिक परिवर्तन एवं आर्थिक मुक्ति और समतामूलक समाज सृजन के मिशन की तुलनात्मक पड़ताल करता है।
(1) सपा की नीतियों में अंतर्निहित खोट: दलित-बहुजन समाज के प्रति घृणित मानसिकता
बहनजी ने अपने बयान में कहा कि सपा दलित-बहुजन समाज के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने, उनकी गरीबी, जातिवादी शोषण, और अन्याय-अत्याचार को समाप्त करने के प्रति न केवल उदासीन है, बल्कि इस दिशा में कोई सहानुभूति या इच्छाशक्ति भी नहीं रखती है। बहनजी का यह कथन न केवल सपा की नीतियों की गहरी पड़ताल की मांग करता है, बल्कि यह भी प्रश्न उठाता है कि एक ऐसा दल, जो स्वयं को समाजवादी विचारधारा का ध्वजवाहक बताता है, दलित-बहुजन समाज की न सिर्फ उपेक्षा करता है बल्कि दलितों से घृणा भी करता है।
दलित-बहुजन समाज, जो भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है, आज भी सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक रूप से मुख्यधारा से कोसों दूर है। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएँ, और सामाजिक सम्मान जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित यह वर्ग जातिवादी व्यवस्था और आर्थिक शोषण का शिकार बना हुआ है। भारतीय संविधान ने इस वर्ग के उत्थान के लिए आरक्षण, न्याय, और समान अवसरों की व्यवस्था की है, जिसमें इन संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने में राजनीतिक दलों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। सपा, जो अपने को समाजवादी और समावेशी बताती है, ने अपने शासनकाल में ऐसी नीतियाँ लागू करने में विफल रही है, जो दलित-बहुजन समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकें।
उदाहरण के लिए, सपा के शासनकाल में दलित-बहुजन समाज के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई। इसके विपरीत, सपा ने ऐसी नीतियों को प्राथमिकता दी, जो उसके वोट बैंक को मजबूत करने में सहायक हों, न कि समाज के सबसे वंचित वर्ग के कल्याण में। यह नीतिगत नफ़रत दलित-बहुजन समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के बजाय उनकी सामाजिक और आर्थिक दूरी को और बढ़ाने वाली सिद्ध हुई। आदरणीया बहनजी का यह कथन कि सपा में दलित-बहुजन समाज की गरीबी और शोषण को समाप्त करने की इच्छाशक्ति का न सिर्फ अभाव है बल्कि सपा चाहती है कि दलित-बहुजन लाचार ही बने रहें, इस संदर्भ में सटीक बिल्कुल सत्य है।
(2) सपा के जातिवादी कृत्य: विश्वासघात से अपमान तक
बहनजी ने सपा पर बीएसपी के साथ विश्वासघात करने और दलित-बहुजन समाज के प्रति घोर जातिवादी चरित्र को दुनिया के सामने एक्सपोज़ कर दिया है। इन बातों की गहराई को समझने के लिए सपा के कुछ विशिष्ट कार्यों की पड़ताल आवश्यक है, जिन्हें बीएसपी प्रमुख ने अपने बयान में उजागर किया है।
(i) बीएसपी के साथ विश्वासघात और नेतृत्व पर हमला:
सपा और बीएसपी के बीच अतीत में कई बार राजनीतिक गठबंधन हुए हैं, लेकिन बहनजी ने सपा द्वारा गठबंधन में विश्वासघात को जन-जन तक पहुंचाया है। यह विश्वासघात केवल राजनीतिक गठजोड़ तक सीमित नहीं है, बल्कि दलित-बहुजन समाज के प्रति सपा की नीतियों में भी परिलक्षित होता है। विशेष रूप से, 2 जून को बीएसपी नेतृत्व पर हुआ जानलेवा हमला एक ऐसा कृत्य है, जो न केवल राजनीतिक हिंसा को दर्शाता है, बल्कि दलित नेतृत्व को दबाने और उनकी आवाज को कुचलने की मंशा को भी उजागर करता है। यह घटना दलित-बहुजन समाज के प्रति सपा के रवैये की क्रूरता को प्रकट करती है और यह सवाल उठाती है कि क्या सपा वास्तव में दलित-बहुजन समाज के हितों की रक्षा करने में सक्षम है।
इतना ही नहीं सपा की सरकार में लखनऊ में लगी प्रतिमाओं तक को सपा सरकार से संरक्षण प्राप्त गुंडों ने हथोड़े से बेरहम चोट कर क्षतिग्रस्त कर दिया। सपा की सरकार में बाबासाहेब की मूर्ति पर पूरे उत्तर प्रदेश में बेतहाशा हमला हुआ। बाबासाहेब की मूर्तियां हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जमींदोज कर दी गई। विरोध करने पर दलितों पर हमले हुए। स्पष्ट है कि दलितों से नफ़रत करने वाली सपा इनकी हितैषी कभी नहीं हो सकती है। सपा और इसके गुंडों के इन कृत्यों से बहुजन, बहुजन आन्दोलन, बहुजन महानायकों, महानायिकाओं एवं दलितों के प्रति इनके नफ़रत का कोई भी सहज अंदाजा लगा सकता है।
(ii) प्रमोशन में आरक्षण के बिल का अपमान:
सपा द्वारा संसद में प्रमोशन में आरक्षण के बिल को फाड़ने का कृत्य दलित-बहुजन समाज के लिए एक गहरा आघात था। आरक्षण, जो संविधान द्वारा दलित-बहुजन समाज को सामाजिक और आर्थिक उत्थान का एक महत्वपूर्ण साधन प्रदान करता है, उसका इस तरह अपमान न केवल सपा की नीतियों में अंतर्निहित जातिवादी मानसिकता को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि सपा दलित-बहुजन समाज के अधिकारों से कितनी नफ़रत करती है। यह कृत्य न केवल दलित-बहुजन समाज के लिए अपमानजनक था, बल्कि यह संविधान की भावना के भी विरुद्ध था, जो सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है।
(iii) दलित प्रतीकों का अपमान:
सपा ने अपने शासनकाल में दलित-बहुजन समाज के संतों, गुरुओं, और महापुरुषों के सम्मान में बनाए गए जिलों, पार्कों, शिक्षण संस्थानों, और मेडिकल कॉलेजों के नाम बदलने का कार्य किया। यह केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं था, बल्कि दलित-बहुजन समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान को मिटाने का सुनियोजित प्रयास था। दलित महापुरुषों जैसे डॉ. भीमराव आंबेडकर, कांशीराम, और अन्य संतों के नाम पर बनाए गए ये स्मारक व प्रतीक दलित-बहुजन समाज के लिए गर्व और प्रेरणा के स्रोत हैं। इनका नाम बदलना न केवल उनके सम्मान का अपमान है, बल्कि यह दलित-बहुजन समाज की सामाजिक प्रगति और आत्मसम्मान को कमजोर करने का प्रयास भी है। बहनजी ने इस कृत्य को ’घोर जातिवादी’ करार दिया है, और यह निश्चित रूप से अक्षम्य है।
ये सभी कृत्य सपा की उस मानसिकता को उजागर करते हैं, जो दलित-बहुजन समाज के प्रति न केवल असंवेदनशील है, बल्कि उनकी प्रगति और सम्मान के मार्ग में जानबूझकर बाधाएँ उत्पन्न करती है। यह एक ऐसी नीति है, जो न केवल दलित-बहुजन समाज के साथ अन्याय करती है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना को भी कमजोर करती है।
(3) बीएसपी का मिशन एवं ऐतिहासिक कार्य: समतामूलक समाज का निर्माण
सपा की इन कथित जातिवादी नीतियों के विपरीत, बीएसपी ने अपने अनवरत प्रयासों से दलित-बहुजन समाज को मुख्यधारा में लाने और जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करने का बीड़ा उठाया है। बहनजी के नेतृत्व में बीएसपी ने समतामूलक समाज निर्माण के अपने मिशन में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है। बीएसपी की नीतियाँ और कार्यकलाप इस बात का प्रमाण हैं कि यह दल न केवल दलित-बहुजन समाज के उत्थान के लिए समर्पित है, बल्कि सर्वसमाज में भाईचारा और समानता स्थापित करने के लिए भी कटिबद्ध है।
(i) शिक्षा और रोजगार के अवसर:
बीएसपी ने अपने शासनकाल में दलित-बहुजन समाज के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाए। विशेष रूप से, दलित-बहुजन समाज के लिए स्कूलों, कॉलेजों, और तकनीकी संस्थानों की स्थापना, साथ ही आरक्षण नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन, बीएसपी की प्राथमिकता रहा है। ये प्रयास दलित-बहुजन समाज को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं।
(ii) सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण:
बीएसपी ने दलित-बहुजन समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए। दलित महापुरुषों के सम्मान में बनाए गए स्मारक, पार्क, और शिक्षण संस्थान इस बात का प्रतीक हैं कि बीएसपी न केवल उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए कार्यरत है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक विरासत को भी संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध है। ये प्रतीक दलित-बहुजन समाज के लिए गर्व और प्रेरणा के स्रोत हैं, जो उन्हें अपनी पहचान के प्रति जागरूक और सशक्त बनाते हैं।
(iii) सर्वसमाज में भाईचारा:
बीएसपी का मिशन केवल दलित-बहुजन समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सर्वसमाज में भाईचारा और समानता स्थापित करने का प्रयास करता है। बीएसपी ने अपनी नीतियों और कार्यों के माध्यम से यह प्रदर्शित किया है कि सामाजिक परिवर्तन तभी संभव है, जब समाज के सभी वर्ग एकजुट होकर जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करें। यह दृष्टिकोण बीएसपी को अन्य दलों से अलग करता है, जो केवल वोट बैंक की राजनीति तक सीमित रहते हैं।
सपा, इसके विपरीत, बीएसपी के इन प्रयासों को न केवल कमजोर करने का प्रयास करती है, बल्कि दलित-बहुजन समाज की प्रगति को बाधित करने के लिए हर संभव कदम उठाती है। यह एक ऐसी नीति है, जो न केवल दलित-बहुजन समाज के साथ अन्याय करती है, बल्कि भारतीय समाज की एकता और समता के सिद्धांतों को भी कमजोर करती है।
(4) सपा का दोहरा चरित्र: वोट की राजनीति और छलावा
बहनजी ने अपने बयान में यह भी उजागर किया है कि सपा भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसे अन्य दलों की तरह, दलित-बहुजन समाज के प्रति सच्ची हितैषी नहीं है। ये दल केवल वोट की राजनीति के लिए इस वर्ग का उपयोग करते हैं, लेकिन उनकी वास्तविक समस्याओं को हल करने के प्रति कोई गंभीर प्रयास नहीं करते। सपा का यह दोहरा चरित्र तब और स्पष्ट होता है, जब वह दलित-बहुजन समाज के वोटों के लिए बड़े-बड़े वादे करती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद इन वादों को भूल जाती है।
उदाहरण के लिए, सपा ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में दलित-बहुजन समाज के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं का वादा किया, लेकिन अपनी रही सरकारों में इन वादों को लागू करने में उसकी विफलता स्पष्ट है। यह नीति न केवल दलित-बहुजन समाज के साथ छलावा है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना के भी विरुद्ध है। लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और सम्मान का अधिकार है, लेकिन सपा की नीतियाँ इस अधिकार को कमजोर करती हैं। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि दलित-बहुजन समाज, जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर है, को इस तरह की राजनीति और भी अधिक नुकसान पहुँचाती है।
(5) सपा की तुलना में बीएसपी की उपलब्धियाँ: एक तुलनात्मक विश्लेषण
सपा और बीएसपी की नीतियों और कार्यों की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि जहाँ सपा ने दलित-बहुजन समाज के प्रति उदासीनता, घृणा और जातिवादी रवैया अपनाया है, वहीं बीएसपी ने इन वर्गों के उत्थान के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाए हैं। निम्नलिखित बिंदु इस तुलना को और स्पष्ट करते हैं :
(i) नीतिगत दृष्टिकोण:
सपा: सपा की नीतियाँ वोट बैंक की राजनीति पर केंद्रित रही हैं, जिसमें दलित-बहुजन समाज के लिए केवल सतही वादे किए गए, लेकिन इनका कार्यान्वयन नहीं हुआ। प्रमोशन में आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सपा का रवैया नकारात्मक रहा व जगजाहिर है।
बीएसपी: बीएसपी ने दलित-बहुजन समाज के लिए शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक सम्मान जैसे क्षेत्रों में ठोस नीतियाँ लागू कीं। आरक्षण नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन और दलित महापुरुषों के सम्मान में स्मारकों का निर्माण इसकी प्राथमिकता रहा।
(ii) सांस्कृतिक सम्मान:
सपा: सपा ने दलित-बहुजन समाज के सांस्कृतिक प्रतीकों, जैसे स्मारकों और संस्थानों के नाम बदलकर उनकी पहचान को कमजोर व नष्ट करने का प्रयास किया।
बीएसपी: बीएसपी ने दलित-बहुजन समाज की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने के लिए स्मारक, पार्क, और शिक्षण संस्थानों की स्थापना की, जो इस वर्ग के लिए गर्व और प्रेरणा के स्रोत हैं।
(iii) सामाजिक एकता:
सपा: सपा की नीतियाँ समाज को जातिगत आधार पर विभाजित करने वाली रही हैं, सपाई गुंडों, मुलायम सिंह यादव के स्वजातीय लोगों व सपाई अराजक तत्वों ने दलितों और अति पिछड़ों पर ज़ुल्म ढहाया, उनकी जमीनें कब्जयीं, हत्या, बलात्कार किया और सपा ने राजस्व संहिता में संशोधन करके अपने स्वजातीय गुंडों को यह मौका दिया कि वे डरा-धमका और मारपीट कर उनकी जमीनें अपने नाम करवा लें, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अनदेखी और भ्रष्टाचार ने दलित-बहुजन को अत्याधिक नुकसान किया, सपा की इन दलित-बहुजन विरोधी मानसिकता और घृणा ने दलित-बहुजन समाज को और हाशिए पर धकेला।
बीएसपी: बीएसपी ने सर्वसमाज में भाईचारा और समानता स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे न केवल दलित-बहुजन समाज, बल्कि पूरे समाज को लाभ हुआ। चुस्त दुरुस्त कानून व्यवस्था, साफ-सुथरी भर्ती, आरक्षण का समुचित क्रियान्वयन, गरीबों के लिए आवासीय योजनाएं, स्वास्थ्य योजनाएं, पेंशन आदि उत्कृष्ट कदमों ने जनता का लोकतंत्र में विश्वास, सम्मान, सुरक्षा और स्वाभिमान को मजबूत करके सामाजिक बंधुत्व और राष्ट्र की एकता को मजबूत करने का ऐतिहासिक कार्य किया।
यह तुलना स्पष्ट करती है कि बीएसपी का दृष्टिकोण दलित-बहुजन समाज के प्रति सकारात्मक और समावेशी है, जबकि सपा की नीतियाँ संकीर्ण और जातिवादी हैं।
(6) निष्कर्ष: सावधानी और जागरूकता की आवश्यकता
बहनजी का यह बयान न केवल सपा की नीतियों और कार्यों पर एक गंभीर टिप्पणी है, बल्कि यह दलित-बहुजन समाज के लिए एक चेतावनी भी है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सपा, अपनी संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए, दलित-बहुजन समाज के हितों को नजरअंदाज करती है और बीएसपी के समतामूलक समाज के मिशन को बिगाड़ने का प्रयास करती है। ऐसे में, यह आवश्यक है कि दलित-बहुजन समाज सपा और अन्य ऐसे दलों के दोहरे चरित्र को समझे और अपनी राजनीतिक जागरूकता को मजबूत करे।
बीएसपी का मिशन, जो ’बहुजन समाज’ को शासक वर्ग बनाने के लिए समर्पित है, न केवल दलित-बहुजन समाज के लिए, बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए एक प्रेरणा है। यह मिशन न्याय – समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, के सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए, यह जरूरी है कि समाज सपा जैसे दलों की नीतियों के प्रति सतर्क रहे और बीएसपी का समर्थन करे, जो वास्तव में उनके हितों के लिए संघर्षरत हैं।
अंत में, आदरणीया बहनजी का यह बयान एक गंभीर चेतावनी है कि दलित-बहुजन समाज को अपनी एकता और जागरूकता को बनाए रखना होगा, ताकि वे उन दलों के छलावे से बच सकें, जो केवल उनके वोटों का उपयोग करते हैं, लेकिन उनके वास्तविक हितों की उपेक्षा करते हैं। यह समय है कि समाज अपने अधिकारों के लिए संगठित हो और एक ऐसे भारत के निर्माण में योगदान दे, जहां समता और न्याय – सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक, हर नागरिक का अधिकार हो। दलित-बहुजन समाज की यह जागरूकता और एकता ही वह शक्ति है, जो जातिवादी व्यवस्था को समाप्त कर एक समतामूलक समाज की स्थापना कर भारत राष्ट्र निर्माण कर सकती है।