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Sunday, June 8, 2025

आर्थिक आधार पर आरक्षण क्यों नहीं? एक समाजशास्त्रीय आंकलन

देश में इन दिनों आरक्षण पर बहस फिर छिड़ी हुई है. खासकर मोदी सरकार ने लागू किया आर्थिक आरक्षण पर लगातार बातें हो रही है. बुद्धिजीवियों ने इसे असंवैधानिक माना है और देश के करोड़ों लोगों के साथ हुए सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शोषण को सिरे से नकारना है.

इसी की विवेचना कर रहे है जाने-माने समाजशास्त्री और जवाहर लाल नेहरू विवि में समाजशास्त्र के विधागाध्यक्ष प्रो विवेक कुमार.

आर्थिक आधार पर आरक्षण से सबसे बड़ा नुकसान यह है कि अनुसूचित जाति, अनु. जनजाति एवं पिछड़ी जातियों की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं मानव अधिकारों की क्षतिपूर्ति को ही भुला दिया जा रहा है.
प्रो विवेक कुमार
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आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नही है

आरक्षन गरीबी उन्मूलन/हटाओं कार्यक्रम नही है. जिससे लोगों की गरीबी दूर की जा सके. गरीबी हटाओं कार्यक्रम इंदिरा गांधी ने 1975 में 20 सूत्रीय कार्यक्रम के साथ आरम्भ किया था, जिसे 1982 एवं 1986 में पुनर्गठित भी किया गया. इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों को सस्ते आवास के लिए ऋण भी दिए गए. इसी कड़ी में उन्हे सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों से सस्ते दर पर अनाज एवं मिट्टी का तेल तक दिया गया. इसके बाद 2004 में कांग्रेस की सरकार ने महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (MNREGA) लागू किया जिससे ग्रामीण अंचल में गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों को एक वर्ष में कम से कम 180 दिन काम देकर उनकी गरीबी दूर की जा सके.

गरीबी के कारण पिछड़ापन दूर करने के अन्य उपाय

अगर गरीबी सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ आदि समाजों में) समाज में शैक्षिक पिछड़ेपन का कारण है तो उस बाधा को/अवरोध को दूर करने के लिए सवर्ण गरीबों को उपरोक्त के साथ-साथ अनेक और आर्थिक सहयोग दिया जा सकता है. जैसे; छात्रवृति या सस्ते दर पर शिक्षा या व्यावसायिक कर्ज, फ्री-किताबें, फ्री-युनिफॉर्म, फ्री-यातायात के साधन आदि. अगर, सवर्णों की गरीबी नौकरियों की प्रतियोगिता में भाग लेने में बाधा है तो उनको फ्री कोचिंग दी जाय. शहरों और कस्बों में उनके लिए हॉस्टल बनवाकर उनको फ्री में दिए जाए. परंतु आर्थिक व्यवस्था के कारण उपजे पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आरक्षण का कोई भी औचित्य नहीं बनता.

सवर्णों के पास सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पूंजी का हजारों वर्षों का बैंक

यहाँ एक अन्य तथ्य ध्यान में रखना अत्यंत समीचीन होगा की गरीब सवर्ण अपने जीवन के एक क्षेत्र-यथा आर्थिक क्षेत्र में (क्रय शकित) ही कमजोर/बहिष्कृत होता है, लेकिन वह अन्य क्षेत्रों में जैसे; धर्म, संस्कृति, परम्परा, शिक्षा, शिष्टाचार, सामाजिक नेटवर्क आदि अनेक आयामों में हजारों वर्षों का स्वामी होता है. इन सब कारणों की वजह से इन सवर्ण समाजों का प्रतिनिधित्व सत्ता (राजनितिक, प्रशसनिक, न्यायिक, आर्थिक, सैन्य) शिक्षा (छात्र, शिक्षक, पाठ्यक्रम, शिक्षण संस्थानों की नौकरियों), संस्कृति (मूल्य, परम्पराएँ, नायक, नायिकाएँ, गीत और संगीत), धार्मिक (धार्मिक और ज्ञान की पुस्तकों, मंदिरों एवं मठों) आदि संस्थाओं में इनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक ज्यादा हैं. अत: इनको आरक्षण जो प्रतिनिधित्व कि प्रक्रिया है उसकी लेश मात्र भी आवश्यकता नहीं प्रतीत होती है.

आरक्षण हजारों वर्षों से समाज में अनेक आयामों में वंचना झेल रहे समाजों को प्रतिनिधित्व देना है

उपरोक्त के आलोक में हमें आरक्षण के दर्शन एवं सिद्धांत को समझना अति आवश्यक है. आरक्षण सदियों से मुख्यधारा की संस्कृति, शिक्षा एवं सत्ता की संस्थाओं से, आर्धिक-संसाधनों के स्वामित्व से, व्यवसाय की स्वतंत्रता, सार्वजनिक स्थानों पर निवास, निर्माण एवं सभी प्रकार के मानव अधिकारों आदि से वंचित समाजों का उनकी जनसंख्या के अनुपात में शिक्षा, राजनीति एवं सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने की संवैधानिक व्यवस्था है. समाज के कुछ आयामों में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर संविधान निर्माताओं ने इन समाजों के साथ शताब्दियों से हुए अन्याय, अत्याचार, शोषण, दमन आदि की क्षतिपूर्ति हेतु सामाजिक न्याय देने का प्रयास किया है. परंतु आज संविधान द्वारा निर्धारित मात्रा में प्रतिनिधित्व पूरा नहीं हो पाया है. यह संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक न्याय मूल्य की अवहेलना है.

आरक्षण में क्रीमी लेयर पिछड़ी जातियों के साथ अन्याय

अन्य पिछड़ी जातियों को संविधान लागू होने के 45 वर्षों पश्चात मंडल कमीशन में आरक्षण मिला. अगर यह आरक्षण उनको 45 वर्ष पहले मिलता तो उनकी उन्नति का ग्राफ कुछ और ही होता. लेकिन पिछड़ी जातियों के साथ और भी ज्यादा अन्याय हुआ. पहले तो उनको आरक्षण के लिए 45 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी. इन 45 वर्षों के दौरान जब उन्होने अपनी मेहनत एवं खून पसीने से कुछ आर्थिक उन्नति कर ली तो उनके अनेक लोगों को क्रीमी-लेयर लगा कर आर्थिक आधार पर आरक्षण से वंचित कर दिया. यहाँ पर न्यायिक व्यवस्था से की गयी आरक्षण की व्याख्या एवं आकलन में त्रुटि हुई. क्योंकि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नही है यह तो समाजों के प्रतिनिधित्व का सवाल है. और पिछड़ी जातियों को तो केवल सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में ही आरक्षण मिला. अत: न्याय व्यवस्था को यह आकल्न करना चाहिए था कि क्या इन समाजों का सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में उनको जनसँख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व है या नही. अगर नहीं तो फिर आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर लगा कर करोड़ों पिछड़ी जाति के लोगों को बाहर क्यों किया गया? यही तो उनके साथ अन्याय हुआ.

हजारों वर्षों की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, मानव अधिकारों की क्षति एवं आर्थिक विपन्नता में कोई समानता नहीं हो सकती

अब आर्थिक आधार पर सवर्ण समाज के लोगों को पिछड़े समाज की आर्थिक प्रस्थिति (स्टेटस) के समकक्ष क्रीमि-लेयर लगाकर सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है. यद्दपि इन समाजों का सत्ता, शिक्षण, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि संस्थाओं में इनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व पहले ही विद्यमान है. इसका मतलब यह हुआ की सरकार उनके प्रतिनिधित्व को अप्रत्याशित रूप से हो बढ़ा रही है जो सामाजिक अन्याय है. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ी जातियों की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं मानव अधिकारों की क्षतिपूर्ति को ही भुला दिया जा रहा है. जैसे इन समाजों के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं मानव अधिकारों के आधार पर कोई अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि हुआ ही न हो. यह तो ऐतिहासिक आधार पर इन समाजों की प्रस्थिति एवं अस्तित्व का वस्तुनिष्ठ आकलन नहीं है. अगर इन समाजों की हजारों वर्षों की उपरोक्त संस्थाओं एवं जीवन के आयामों में क्षति पूर्ती की उपेक्षा की जायेगी तो पुन: इन समाजों के साथ अन्याय होगा.

(लेखक: प्रो विवेक कुमार; ये लेखक के अपने विचार हैं)

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