मंडल कमीशन और मान्यवर कांशीराम: सामाजिक न्याय का एक ऐतिहासिक संघर्ष
भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने सामाजिक समानता और न्याय के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया था। संविधान के अनुच्छेद 340 के माध्यम से उन्होंने पिछड़े वर्गों के उत्थान हेतु एक आयोग के गठन का प्रावधान किया, जिससे इन वर्गों को आरक्षण के लाभ प्राप्त हो सकें। किंतु, स्वतंत्रता के बाद सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। डॉ. आंबेडकर, जो उस समय विधि मंत्री थे, ने हिंदू कोड बिल और अनुच्छेद 340 सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार की उदासीनता से क्षुब्ध होकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उनके इस कदम ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक नई दिशा दी।
कलेलकर आयोग से मंडल आयोग तक: टाला गया न्याय
डॉ. आंबेडकर के इस्तीफे के बाद कांग्रेस सरकार ने काका कलेलकर की अध्यक्षता में पहला पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया। इस आयोग ने अपनी जांच के दौरान डॉ. आंबेडकर से चर्चा की और उनके सुझावों को अपने ढंग से समेटकर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसे सरकार को सौंप दिया गया। कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को स्वीकार तो किया, पर इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। वर्षों बाद, जब मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज के अधिकारों के लिए आंदोलन की शुरुआत की, तो उन्होंने ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा दिया, जो सामाजिक न्याय के लिए एक क्रांतिकारी उद्घोष बना।
1970 के दशक में जनता पार्टी की सरकार ने कलेलकर रिपोर्ट को पुराना बताकर खारिज कर दिया और बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में एक नया आयोग गठित किया, जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना गया। किंतु, जब तक इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, जनता पार्टी की सरकार समाप्त हो चुकी थी और कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई। कांग्रेस ने मंडल रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस बीच, मान्यवर कांशीराम ने बामसेफ, डीएस-4 और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे मंचों के माध्यम से देशभर में पांच विशाल रैलियों, 500 से अधिक सभाओं और कैडर कैंपों के जरिए मंडल कमीशन के महत्व को जन-जन तक पहुंचाया। उनका यह प्रयास बहुजन समाज को जागृत करने में मील का पत्थर साबित हुआ।
वी.पी. सिंह सरकार और मंडल कमीशन का आंशिक लागू होना
1989 में वी.पी. सिंह ने जोड़-तोड़ की राजनीति से अपनी सरकार बनाई, किंतु उन्हें बहुमत के लिए तीन सांसदों की कमी थी। उस समय बसपा के तीन सांसद लोकसभा में निर्वाचित हुए थे। वी.पी. सिंह ने मान्यवर कांशीराम से समर्थन मांगा। मान्यवर ने तीन शर्तें रखीं: मंडल कमीशन का कार्यान्वयन, एससी-एसटी एक्ट का लागू होना और डॉ. आंबेडकर को भारत रत्न से सम्मानित करना। वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन को छोड़कर शेष दो शर्तों को पूरा किया, किंतु मंडल कमीशन को लागू करने में टालमटोल करते रहे। उस समय बिहार और उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी के टिकट पर चुने गए पिछड़े वर्ग के तथाकथित नेता मुख्यमंत्री थे, जो भाजपा के समर्थन पर निर्भर थे। इन नेताओं ने अपनी कुर्सी बचाने की खातिर वी.पी. सिंह पर कोई दबाव नहीं डाला।
मान्यवर की चुनौती और देवीलाल का साथ
मान्यवर कांशीराम ने वी.पी. सिंह और इन नेताओं की मंशा को भांप लिया। उन्होंने वी.पी. सिंह को खुली चुनौती दी: “मंडल कमीशन लागू करो, वरना सिंहासन खाली करो।” इसी दौरान वी.पी. सिंह ने अपने उपप्रधानमंत्री देवीलाल को सरकार से अलग-थलग कर दिया था। निराश देवीलाल को कोई समर्थन देने को तैयार नहीं था। ऐसे में मान्यवर उनके आवास पर पहुंचे और दिल्ली में एक विशाल किसान रैली का सुझाव दिया। देवीलाल के संकोच पर मान्यवर ने आश्वासन दिया कि रैली की जिम्मेदारी बसपा संभाल लेगी। साथ ही, उन्होंने मंडल कमीशन लागू करने की शर्त पर देवीलाल को प्रधानमंत्री बनाने में सहयोग का वचन दिया।
यह खबर जंगल की आग की तरह फैली। 9 अगस्त को रैली की तारीख तय हुई। वी.पी. सिंह की कुर्सी खतरे में पड़ गई। मजबूरन, उन्होंने रैली से दो दिन पहले, 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन के एक हिस्से—पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण—को ओबीसी जनसंख्या के अनुपात के बजाय 27 प्रतिशत के साथ आधे-अधूरे ढंग से लागू कर दिया। इस फैसले का देशभर में तीखा विरोध हुआ।
मंडल बनाम कमंडल: अधूरी जीत और निरंतर संघर्ष
मान्यवर कांशीराम ने मंडल कमीशन को पूर्ण रूप से लागू करने की मांग जारी रखी। बसपा इस मुद्दे पर अडिग रही। किंतु, बिहार के तथाकथित पिछड़े वर्ग नेता ने मंडल के बजाय भाजपा की रथयात्रा को रोककर मुस्लिम तुष्टीकरण का रास्ता चुना, तो उत्तर प्रदेश के नेता ने अयोध्या प्रकरण को हवा देकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया। अफसोस की बात यह रही कि ओबीसी समाज, जो अपने हक के लिए बसपा के साथ खड़ा हो सकता था, कमंडल की राजनीति में उलझ गया और मंडल कमीशन की मूल भावना कमजोर पड़ गई।
निष्कर्ष: मान्यवर—मंडल मसीहा
यह स्पष्ट है कि वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन को स्वेच्छा से लागू नहीं किया। यह मान्यवर कांशीराम के अथक संघर्ष और उनकी रणनीतिक दबाव का परिणाम था कि ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त हुआ। मान्यवर ने न केवल बहुजन समाज को जागृत किया, बल्कि सामाजिक न्याय के इस ऐतिहासिक कदम को मूर्त रूप दिया। यही कारण है कि उन्हें ‘मंडल मसीहा’ कहा जाता है। उनका यह योगदान भारतीय इतिहास में सामाजिक समता की लड़ाई का एक स्वर्णिम अध्याय बन गया।