“हिंदुत्व का कथित संकट और बहुजन समाज की चुनौती”
पिछले कुछ दशकों से भारत में एक कथानक गढ़ा गया है कि हिंदुत्व संकट में है। इस नैरेटिव ने जनमानस की चेतना को इस कदर प्रभावित किया है कि यह वाक्य सुनते ही लोगों के मन में यह धारणा बलवती हो उठती है कि यह खतरा मुस्लिम समुदाय से है। परिणामस्वरूप, भारतीय राजनीति दो स्पष्ट धड़ों में विभाजित हो गई। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कट्टर हिंदुत्व का मार्ग अपनाया, तो कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने मृदु हिंदुत्व की राह पकड़कर मुस्लिम समुदाय को लुभाने का हर संभव प्रयास शुरू कर दिया। हालाँकि, यह कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस और हिंदुत्व के संगठन व नेतृत्व पहले भी इस तरह के प्रयास करते रहे हैं। देश का विभाजन इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
आज भारत की राजनीति और सामाजिक संरचना पूर्णतः धार्मिक ध्रुवीकरण की चपेट में आ चुकी है। इस ध्रुवीकरण की आँच से देश के संवैधानिक संस्थान भी अछूते नहीं रह सके। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण विभिन्न उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा समय-समय पर की गईं असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और अनैतिक टिप्पणियाँ हैं, जो कभी न्यायपीठ से तो कभी संगोष्ठियों के मंचों से उजागर हुईं। समूचा राष्ट्र इस ध्रुवीकरण की गोद में समाता जा रहा है।
हालाँकि, दलितों की आत्मनिर्भर राजनीति, जिसका प्रतिनिधित्व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) करती है, अभी भी इस ध्रुवीकरण से परे है। किंतु सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दलित समुदाय अपने एजेंडे, अपनी विचारधारा और अपने लक्ष्यों पर कब तक अडिग रह पाएगा। यदि इस ध्रुवीकरण के दौर में दलित अपनी आत्मनिर्भर राजनीति को संजोए रखने में सफल रहे, तो मान्यवर कांशीराम साहेब के कथनानुसार, भाजपा के सत्ताच्युत होने के पश्चात दलितों का युग प्रारंभ होगा।
फिलहाल, जब से कट्टर हिंदुत्व सत्तासीन हुआ है, सरकार के कार्यकलापों और मृदु हिंदुत्व का दामन थामे कांग्रेस व उसके सहयोगियों ने मुस्लिम समुदाय के मन में असुरक्षा की भावना को जड़ें जमा दी हैं। इसके परिणामस्वरूप, एक ओर हिंदुत्व के नाम पर गैर-मुस्लिम समुदाय आसानी से एकजुट हो गया, तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय भी आपसी मतभेदों को भुलाकर संगठित हो उठा। इससे भाजपा को सर्वाधिक लाभ मिला, वहीं कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने भी विपक्ष में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया।
इस ध्रुवीकरण से सबसे अधिक क्षति दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को हुई है। आश्चर्यजनक यह है कि धीरे-धीरे हिंदुत्व से पीड़ित शूद्र वर्ण और हिंदू व्यवस्था से बाहर के आदिवासी व दलित भी इसकी चपेट में आते जा रहे हैं। इस ध्रुवीकरण के जाल में फंसकर दलित, आदिवासी और पिछड़े अपनी आत्मनिर्भर रणनीति, राजनीति, लक्ष्य और एजेंडे से विमुख होकर भाजपा और कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से रची गई चाल के शिकार होते जा रहे हैं। यह प्रचारित किया गया कि मुस्लिम असुरक्षित है, हिंदुत्व संकट में है, किंतु क्या वास्तव में ऐसा है?
यदि हिंदुत्व के संकटग्रस्त होने पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि हिंदुत्व को कभी भी किसी अन्य धर्म से खतरा नहीं रहा। हिंदुत्व इस्लामी शासन और ईसाई शासन के दौर में भी सुरक्षित रहा। जब इस्लामी हुकूमत के समय हिंदुत्व को कोई संकट नहीं हुआ, तो आज हिंदुत्व की सरकार में यह खतरे में कैसे हो सकता है? हिंदुत्व की अपनी विशिष्ट पहचान है—इसका अपना वेश-भूषा, तीज-त्योहार, पूजा-पद्धति, पूजा-स्थल, ग्रेडेड असमानता पर आधारित जाति संस्कृति और धर्म का कारोबार है, जो दिन-दूना, रात-चौगुना फल-फूल रहा है। ऐसे में हिंदुत्व संकट में कैसे हो सकता है?
दूसरी ओर, इस्लाम की भी अपनी पहचान है—इसका अपना वेश-भूषा, तीज-त्योहार, पूजा-पद्धति, पूजा-स्थल और संस्कृति है। इनका धार्मिक कारोबार भी उसी गति से बढ़ रहा है। फिर प्रश्न उठता है कि इस्लाम संकट में कैसे आ गया? हिंदू और मुस्लिम के संदर्भ में देखें, तो दोनों की अस्मिता सुरक्षित है और दोनों एक-दूसरे के पूरक की भाँति कार्य कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि संकट में दलित, आदिवासी और शूद्र (ओबीसी) हैं।
यदि हिंदुत्व के संदर्भ में खतरे की बात करें, तो सत्य यह है कि यदि हिंदुत्व को कोई खतरा है, तो वह स्वयं हिंदुत्व से ही है। हिंदुत्व को खतरा जाति से है। जब तक जाति रहेगी, हिंदुत्व पर संकट बना रहेगा। हिंदुत्व जाति को स्वयं से पृथक नहीं कर सकता, क्योंकि जाति ही हिंदुत्व की आधारशिला है। अतः जाति को बनाए रखना हिंदुत्व के अस्तित्व के लिए अनिवार्य शर्त है। जातियाँ जितनी सशक्त होंगी, हिंदुत्व उतना ही मजबूत होगा। राम मंदिर, दुर्गा पूजा, कुम्भ मेला और मंत्रोच्चारण में हिंदुत्व खोजना मूर्खता है; असली हिंदुत्व जाति में निहित है। जो जाति पर प्रहार करता है, वही हिंदुत्व के लिए खतरा है। अब प्रश्न यह है कि जाति पर प्रहार कौन करता रहा है?
स्वाभाविक है कि जाति के नाम पर मानवीय अधिकारों से वंचित समुदाय ही जाति को ध्वस्त कर “मानव-मानव एक समान” के सिद्धांत पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के लिए समर्पित रहा है। यह समुदाय आज का दलित, आदिवासी और हिंदू धर्म का शूद्र (ओबीसी) है। यह वर्ग अपनी हिस्सेदारी से वंचित रहे, अपनी स्वतंत्र पहचान न बना सके, इसलिए इसे हिंदू-मुस्लिम के नाम पर उलझाया जा रहा है। यह कार्य भाजपा अकेले नहीं कर रही, बल्कि कांग्रेस यह पहले से करती आई है।
भाजपा हो या कांग्रेस अथवा इनके सहयोगी, यदि इनके नीति-निर्धारक मंडलियों पर दृष्टि डालें, तो वहाँ जाति व्यवस्था के पक्षधर ही दिखते हैं, न कि जाति विध्वंस के पैरोकार दलित। हिंदुत्व को खतरा समतावादियों से है। अतः समतावादी लोगों को भ्रमित कर उनकी ऊर्जा को गलत दिशा में मोड़कर हिंदुत्व की रक्षा की जा रही है।
इसलिए हिंदुत्व के संकट में होने का कथानक रचा गया, देश का ध्रुवीकरण किया गया, और इसे हिंदू-मुस्लिम की आग में झोंक दिया गया। हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से हिंदुत्व को बल मिलता है, जाति व्यवस्था को संरक्षण प्राप्त होता है, जाति उन्मूलन का मुद्दा दब जाता है, और जाति व्यवस्था सशक्त होती है। दलित, आदिवासी और शूद्र अपने मुद्दों से भटक जाते हैं, और समतामूलक समाज के सृजन का आंदोलन हाशिए पर चला जाता है। अब प्रश्न यह है कि समता को जीवनशैली का हिस्सा बनाए बिना क्या भारत का राष्ट्र निर्माण संभव है?
हिंदू-मुस्लिम की बात करें, तो एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी उजागर होता है कि संविधान और लोकतंत्र के पैरोकार दलित, आदिवासी और शूद्र (ओबीसी) वर्ग मुस्लिम के हर मुद्दे पर उनके साथ खड़े दिखते हैं, किंतु मुस्लिम कभी भी दलितों, आदिवासियों और शूद्रों के मुद्दों पर उनके साथ नहीं आता। आरक्षण, एससी-एसटी एक्ट, या इनकी आत्मनिर्भर राजनीति के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय इन उत्पीड़ितों के साथ कहीं नहीं दिखता।
इसका एक कारण यह हो सकता है कि दलित, आदिवासी और शूद्र वर्ग स्वयं प्रताड़ित रहा है, अतः हर किसी की पीड़ा में सहभागी हो जाता है। किंतु यह गुण न तो हिंदुओं में है, न ही मुस्लिम, सिख, जैन आदि में। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि दलितों, आदिवासियों और शूद्रों के साथ जितना भेदभाव हिंदू करते हैं, उतना ही ये समुदाय भी करते हैं। देश की इतनी विशाल जनसंख्या के प्रति नफरत को जीवित रखकर भारत का राष्ट्र निर्माण कैसे संभव है?
हिंदू-मुस्लिम के अनावश्यक ध्रुवीकरण में शामिल होने से पहले इनके आपसी भ्रातृत्व पर विचार करना आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि हिंदुत्व के बड़े नेताओं का मुस्लिम नेताओं से रोटी-बेटी का संबंध प्राचीन काल से रहा है। हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर बॉलीवुड दीवाना रहा है। हजारों फिल्में बनीं, जिनमें दोनों की संस्कृति का सम्मान दर्शाया गया। लेख लिखे गए, शोध-पत्र प्रकाशित हुए, और गंगा-जमुनी तहज़ीब का कथानक गढ़ा गया।
लोक जीवन में भी यह भाईचारा सुदृढ़ है। आज भी कट्टर हिंदू किसी मुस्लिम बुजुर्ग को देखकर उसकी संस्कृति का सम्मान करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्वारा मुस्लिम को “चच्चा सलाम, सलाम भाई जी” कहना सहज और स्वीकार्य है। ईद-बकरीद पर मुस्लिम के घर दावत की कतारों में त्रिवर्ण ही दिखते हैं। क्या दलितों, आदिवासियों और शूद्रों के प्रति ऐसा सहृदय, सरल और स्वीकार्य व्यवहार हिंदुओं और मुस्लिमों से अपेक्षित है? दुखद यह है कि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही है।
फिलहाल, इन दोनों की सशक्त और सुरक्षित संस्कृति के उदाहरण के रूप में एक ताज़ा घटना पर दृष्टि डालें। जब एक प्रसिद्ध तबलावादक (जाकिर हुसैन) का देहांत होता है, तो मुख्यधारा मीडिया में गंभीर चर्चा होती है। अखबारों में संपादकीय लिखे जाते हैं, मुख्य पृष्ठ पर खबर छपती है, और आंतरिक पन्ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विपक्षी नेता, क्रिकेटरों और बॉलीवुड हस्तियों के शोक संदेशों से भरे होते हैं। इसे देश की क्षति बताया जाता है। किंतु बाबासाहेब और मान्यवर साहेब की जयंती या महापरिनिर्वाण दिवस पर अखबारों की स्याही सूख जाती है, और एंकरों का गला बैठ जाता है।
संसद में संविधान पर चर्चा होती है, तो कांग्रेस, भाजपा और अन्य दल अपनी समस्त ऊर्जा और संसद का समय इस बात में नष्ट कर देते हैं कि कौन सही है और कौन गलत। इस चर्चा से अखबार भर जाते हैं, टीवी पर बहस होती है, किंतु कोई भी संविधान के निर्माता परमपूज्य बाबासाहेब और भारत राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान का उल्लेख नहीं करता। अब विचारणीय है कि राष्ट्र निर्माता को नज़रअंदाज़ कर भारत का राष्ट्र निर्माण कैसे संभव है!
हिंदुत्व के नाम पर स्वयं को नष्ट करने वाले कुछ दलितों, आदिवासियों और शूद्रों को यह सोचना चाहिए कि हिंदुत्व की सरकार होने के बावजूद न्यायपालिका, मीडिया, विश्वविद्यालय, उद्योग जगत, कार्यपालिका और सिविल सोसाइटी में मुस्लिम समुदाय की स्थिति इनसे बेहतर है। मुस्लिम की अस्मिता और संस्कृति सुरक्षित और अक्षुण्ण है। हिंदुत्व की सरकार द्वारा मुस्लिम विरोधी होने के बावजूद न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में मुस्लिम को भागीदारी मिल रही है, किंतु हिंदुत्व के नाम पर स्वयं को मिटाने वाले शूद्रों, दलितों और आदिवासियों को क्या उनका उचित प्रतिनिधित्व मिला? क्या आज भी इनके पास अपनी आत्मनिर्भर संस्कृति या सम्मानजनक पहचान है? यदि नहीं, तो वास्तव में खतरा हिंदू या मुस्लिम को नहीं, बल्कि दलितों, आदिवासियों और शूद्रों को है। सोचिए, इतनी विशाल जनसंख्या को संकट में डालकर भारत का राष्ट्र निर्माण कैसे संभव है!
स्पष्ट है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण हिंदुत्व, जाति व्यवस्था और विषमतावादी संस्कृति को सशक्त और सुरक्षित करता है। जाति उन्मूलन का मुद्दा दब जाता है, दलित, आदिवासी और शूद्रों के प्रश्न हाशिए पर चले जाते हैं। मुस्लिम समुदाय में भी अशराफ को नेतृत्व मिल जाता है, और पसमांदा अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के मुद्दों को भूल जाता है। यह कोई धार्मिक लड़ाई नहीं, बल्कि एक कारोबार है, जिसका उद्देश्य दलित, आदिवासी, शूद्र और पसमांदा—अर्थात् बहुजन समाज—की सकारात्मक ऊर्जा को नकारात्मक एजेंडे की ओर मोड़कर हिंदुत्व और अशराफ के राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक कारोबार को निर्बाध चलाना है।
अतः बहुजन समाज को कांग्रेस, भाजपा, सपा, राजद, टीएमसी, आप, जदयू, जेडीयू आदि के जाल से बाहर निकलकर अपनी आत्मनिर्भर एजेंडे, विचारधारा और लक्ष्य की ओर स्वतंत्र राजनीति को सशक्त करते हुए अपनी स्वतंत्र अस्मिता और संस्कृति के सृजन के लिए सतत संघर्ष करना चाहिए। अब सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या बहुजन समाज अपनी आत्मनिर्भर राजनीति, वैचारिकी और एजेंडे के साथ अडिग रह पाएगा, या धार्मिक ध्रुवीकरण में विलीन होकर साम्प्रदायिकता की गोद में सो जाएगा?