व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन की अवधि लम्बी हो सकती है, बहुत सब्र की ज़रूरत होती है. आन्दोलन में लिप्त कुछ लोगों का सब्र टूट जाता है और लोग उससे निकलने के सस्ते और सरल उपाय तलाशने में जुट जाते हैं.
कुछ लोग तात्कालिक लाभ लेने के लिए अपने मिशन से गद्दारी कर दुश्मन की शरण में चले जाते हैं और फिर उनकी कठपुतली बनकर रह जाते हैं. ये लोग दुश्मनों से मिलकर साजिश करते हैं और साथ ही आंदोलनरत लोगों को गुमराह भी करते हैं. ऐसा करने से आंदोलन और मिशन को अल्पकालिक क्षति तो होती है, लेकिन अंततः इन गद्दारों का हश्र भी बहुत बुरा होता है. आंदोलन को धोखा देने वाले ये लोग गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो जाते हैं, और फिर इन गद्दारों का कोई नामलेवा भी नहीं रहता है.
जब बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया’ नामक संगठन का नेतृत्व कर रहे थे, तब कई एक नेताओं ने उन्हें धोखा दिया था. रण खाम्बे, एन. शिवराज, दादा साहेब गायकवाड़ आदि के साथ-साथ ऐसे कई और नामों की फेहरिस्त है, जो तत्समय बाबासाहेब के संगठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे थे, लेकिन कई मामलों में उनकी बाबासाहेब से मतभिन्नता थी. उनमें से कई लोगों का आज गुमनामी के अंधेरे में शमन हो चुका है और डॉक्टर अंबेडकर आज भी सूर्य के समान करोड़ों लोगों को अपनी विचारधारा की रोशनी प्रदान कर रहे हैं.
जब उत्तरप्रदेश के फेडरेशन के कुछ कार्यकर्त्ता, तत्कालीन यूपी फेडरेशन के अध्यक्ष के नेतृत्व में, बाबासाहेब के निवास, 26 अलीपुर रोड, नई दिल्ली मिलने पहुंचे और उन्होंने आगरा में एक जनसभा रखने का प्रस्ताव रखा तो बाबासाहेब ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया. उस समय पार्टी के लिए चंदे की सख्त जरूरत थी. यूपी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के अध्यक्ष ने बाबासाहेब को 5 हज़ार रुपए की थैली भेंट करने का वचन दिया था.
सभा की तिथि,18 मार्च, 1956 निर्धारित कर दी गई और सभा के आयोजन की तैयारियां बड़े जोर-शोर से शुरू हो गईं. तभी घटनाचक्र बड़ी तेज़ी से बदला. नेहरू जी को इस सभा के आयोजन की भनक लग गई और उन्होंने यूपी फेडरेशन के अध्यक्ष को लालच देकर अपने पाले में कर लिया. फिर क्या था, जनसभा के पहले ही दिन सभी प्रमुख समाचार पत्रों में, उत्तरप्रदेश के एस. सी. एफ. के अध्यक्ष की, अंबेडकर विरोधी खबरें अखबारों की सुर्ख़ियां बन गईं. डॉक्टर अंबेडकर और ‘ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ पर गम्भीर आरोप लगाए गए. यहां तक कि डॉक्टर अम्बेडकर को तानाशाह तक घोषित कर दिया गया.
नेहरू अपने षडयंत्र में कामयाब होते दिख रहे थे लेकिन, बावजूद इसके, बाबासाहेब अंततः मिशन बचाने में सफल हुए. आगरा के मैदान में 4 लाख से भी अधिक लोगों की भीड़ बाबासाहेब को सुनने के लिए एकत्र हुई. भीड़ में उपस्थित लोगों ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी ने चवन्नी दी, तो किसी ने अठन्नी दी. इस प्रकार जितना बोला था उससे भी कहीं अधिक चंदा इकट्ठा हो गया.
वह धनराशि बाबासाहेब को सम्मानपूर्वक भेंट कर दी गई. बाबासाहेब डा० अंबेडकर ने इस जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था, “मुझे मेरे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है.” उनका इशारा कुछ स्वार्थी, गद्दार, पढ़े-लिखे लोगों की कृतध्नता की ओर था.
बाबासाहेब डाक्टर अंबेडकर ने सभा में उपस्थित लोगों को संगठन के महत्व को समझाया. उन्होंने कहा, उनके न रहने के बाद संगठन कौन चलाएगा? सभी तरफ तो स्वार्थी लोग हैं. गांव-देहात के लोगों को कौन बचाएगा? बाबासाहेब अंबेडकर भरी सभा के सामने भावुक हो गए और उनकी आंखें नम हो गईं. दरअसल, उस समय मिशन के कुछ लोगों ने उन्हें इतना दुख पहुंचाया था, इतनी पीड़ा दी थी कि वे खुद को रोने से रोक नहीं पाए थे.
जब आगरा में नेहरू के विरोध के बावजूद बाबासाहेब की जनसभा का सफल आयोजन हो गया तो खीझ मिटाने के लिए नेहरू ने पुनः अख़बारों में फेडरेशन से निष्कासित नेता को ऊटपटांग बयान देने के लिए निर्देशित किया.
तत्पश्चात, आगरा से फेडरेशन के कार्यकर्ताओं का एक शिष्ट मंडल संगठन विरोधी बयानों की अख़बारों की कटिंग लेकर बाबासाहेब डाक्टर अंबेडकर से मिलने के लिए दिल्ली उनके निवास पर आया. बाबासाहेब अंबेडकर ने उन अख़बारों की कटिंग्स को पढ़ा. कुछ सोचने के बाद उन्होंने अपने संगठन के कार्यकर्ताओं को सलाह देते हुए कहा,
“एक बात हमेशा याद रखना ईमानदारी बहुत बड़ी चीज है. नेहरू तो चाहते हैं कि मैं कांग्रेस में आ जाऊं, मगर मैंने अपने समाज का साथ नहीं छोड़ा, मैंने अपने सिद्धान्त नहीं छोड़े. आज भी यदि मैं चवन्नी के पोस्टकार्ड पर नेहरू को लिखकर भेजूं कि मुझे आपकी शर्त मंजूर है और मैं कांग्रेस में आता हूं तो वे मुझे कांग्रेस का अध्यक्ष और देश का उपप्रधानमंत्री बनाने को तैयार हैं. उन्होंने कई बार ऐसे प्रस्ताव भेजे थे. लेकिन, ध्यान रखिए हमारा स्वाभिमानी संगठन और उद्देश्य बड़ा और सर्वोपरि है. जो इस फेडरेशन के मंच से बोलता है, उसे लाखों लोग सुनने को बेताब रहते हैं और जो इस संगठन और उद्देश्य को छोड़कर चला जाता है, उस गद्दार की स्थिति उस कहावत की भांति होती है- ‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का.‘ संगठन को छोड़ते समय यह बात नहीं भूलना चाहिए आपकी कीमत संगठन से है, इसके बिना आपकी कोई कीमत नहीं रहेगी. आने वाली पीढ़ियां आपको कभी माफ नहीं करेंगी.”
नेहरू ने संगठन को तोड़ने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगा दी थी. वे अपने मकसद को पूरा करने में स्वार्थी और लालची नेताओं का सहारा ले रहे थे. नेहरू के इस कृत्य से उन्हें इतनी हैरानी नहीं हुई बल्कि उन्हें अपने लोगों से अधिक पीड़ा हुई क्योंकि, वे बिक चुके थे जबकि बाबासाहेब एक न बिकने वाले समाज का निर्माण करने में लगे थे.
बाबासाहेब आंबेडकर के मिशन को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाने वाले मान्यवर साहेब कांशीराम भी न बिकने वाला समाज बनाना चाहते थे, लेकिन उन्हें भी अपनों ने ही धोखा दिया और उनके मिशन को कामयाबी के शिखर तक नहीं पहुंचने दिया, उनके कारवां को रोक दिया.
बाबासाहेब डॉक्टर अम्बेडकर अपने मंसूबों पर पानी फिरते देख बहुत दुःखी हुए थे और उन्होंने अपनी पीड़ा को व्यक्त भी किया था. नेहरू ने संगठन में तोड़-फोड़ की, फिर भी, डाक्टर अंबेडकर ने हिम्मत नहीं हारी, अपने उसूलों और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. समाज के साथ वे दृढ़ता से खड़े रहे और उद्देश्य पूर्ति की दिशा में जीवन पर्यन्त निरन्तर आगे बढ़ते रहे. बाबासाहेब डाक्टर अंबेडकर ने सन् 1946 में महाराष्ट्र के सोलापुर में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि, “मेरे पास बुद्धि की कमी नहीं है, मैं अकेला ही काफी हूं. बुद्धि की भरपाई करने के लिए मुझे बुद्धि की नहीं, बल्कि ईमानदार लोगों की ज़रूरत है, लगता है, ईमानदार लोगों की संगठन में कमी है.”
आज भी समाज में बेईमान और गद्दार नेताओं की कमी नहीं है. कुछ लोग पहले संगठन में अपनी जगह बनाते हैं, और जब समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है, तो लोकप्रियता का फायदा उठाकर, स्वार्थ और लालच के चलते, विरोधियों के पाले में चले जाते हैं. ऐसे गद्दार नेताओं को चंद रुपयों और पद की लालसा में, अपने समर्थकों और चाहने वालों के विश्वास का खून कर देने में ज़रा भी हिचक नहीं होती है.
आज बहुजन समाज के अनेक सामाजिक और राजनीतिक संगठन बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं. ‘अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग’ अलाप रहे हैं. इन्हीं वजहों से सवर्ण नेतृत्व वाले राजनैतिक दल सत्ता में अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए हैं. जब विचारधारा एक है सभी के प्रेरणास्रोत भी अंबेडकर हैं, तो संगठन अलग-अलग क्यों? राजनैतिक पार्टियां अलग-अलग क्यों? कारण साफ है, नेताओं को पद, प्रतिष्ठा और पैसा का लालच है. मतलब, ‘समाज सेवा’ के नाम पर ‘स्वयं सेवा.’ ऐसे लोगों से कोई अपेक्षा रखना बेमानी है. समाज सेवा में ‘ईमानदारी’ का तत्व गायब है, और एकजुटता की कमी के चलते सत्ता पहुंच से बाहर है.
(लेखक: वी. आर. ‘कुढ़ावी’ ये लेखक के अपने विचार हैं)