बुद्धमय भारत रहा,
फली-फूली समृद्धि जिहमैं,
सुख शांति औ मानवता कै ज्ञान।
हड़प्पा मोहनजोदड़ो कहत,
तक्षशिला-नालंदा करत है जिनका गुनगान।।
फिर मनुष्य आवा भारत में,
कै षड्यंत्र बांट दिया मानव को,
एक नहीं, हजारन बार,
स्थापित कै मनुष्यता को,
किया शुरू अत्याचार।।
मनुष्यता नाहि है कुछ और,
ई है ब्राह्मणवाद, ई है मनु का दौर,
जब शुद्र-अछूतन पर चलै तलवार।
अज्ञानी आन्हर बने रहैं ये,
न रहा शिक्षा का यनका अधिकार।।
न जमीन, न खेती, न अन्न-आहार,
फांका पड़त रहा तब बारंबार।
दुर्गति में जीवन गुजरत्,
काल बसेरा घर-घर द्वार।।
धोबी धोवत कपड़े,
अहिर चरावत पशु-ए-सरकार,
रहैं गडरिया भेड़न के बिच,
खटिया मचिया दौरी बनवत,
गुजरे जीवन कहै कलवार।।
बौद्धन् से तो नफरत इतनी,
बनाय दिया वनका अछुत-चमार,
उनकी परछाई से भी नापाक होय,
ब्राह्मण-सवर्ण सब अपराधिन जाति।
जीवन होय गए पशु से भी बद्तर,
कहै चीख-चीख बौद्धन कै इतिहास।।
ठंडी हो या गर्मी वर्षा,
बाबू साहब के खेतन में जीवन गुजरै,
मिले न रोटी अंकड़ैं आंत,
भूसा खाई कै जीवन गुजरैं,
पन्नि में पड़ा रहै कुर्मी और किसान।
कब तक लोहा पीटत् जीवन गुजरे,
पूछें हाथ के छाले,
ऐसा कहि-कहि मरैं लोहार।।
डाल-डाल से फूल चुगैं,
माली बिछावें विप्रन की राह,
करत गुलामी सब लोगा,
हो चाहे भर पासी महार दुसाध।।
जिंदगी बीते कुल्हड़ काटत,
खोदत माटी बतावैं कोहार,
यह कैसी दुर्गति हमरी,
पानी ढोवत चिल्लाय कहार।।
कोल्हू में घूमैं तेलि-तमोली,
चमकैं अपराधिन के सिर कै बाल,
कोइरी उगावैं मुरई गाजर,
बैठि-बैठि खाय जल्लाद,
कब तक पेट भरैं नाऊ,
काटि-काटि दूसरन् कै बाल।
दो घाटन् के बिच जीवन भरमैं,
कहैं केवट, कहैं निषाद, मल्लाह।।
इज्जत आबरू न बचैं शुद्रन की,
बचैं न उनकी फूलन नारि,
अत्याचारन् की ये पराकाष्ठा,
झेलत है शूद्र-अछूत समाज,
ई है देश की पीड़ा,
ई है देश का काला इतिहास,
ई है देश का काला इतिहास।।
(12.01.2020)