अहो ! ये एकांत
इतना मादक और
आह्लादकारी भी हो सकता है?
इस स्व की खोल के भीतर और बाहर
निरंतर नृत्य करते उस आनंद के लिए
ये इस तरह मार्ग भी बन सकता है?
अपने ही गर्भ में इस को पा लेना
या इसके गर्भ में स्वयं को खो देना
स्वयं में एक समाधान है
इस भांति यह
उस सनातन पीडक मन
और इस मन की ओट में छुपे
कुंवारे जागरण के बीच
विराम की एक रेखा खींच देता है
तब रेखा के उस पार
‘उस’ शून्य का आरम्भ होता है
जिसका फिर कभी
कोई अंत नहीं आता
उस शून्य में
फिर न मन है
न एकांत ही है …
(लेखक: संजय श्रमण)