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Monday, June 9, 2025

कविता: बीहड़ से बुद्ध की ओर… सूरज कुमार बौद्ध की कविता

मेरे बचपन को खाई में धकेले हो तुम,
तेरे करतूतों का जवाब देकर रहूंगी.
बहन-बेटियों के जिस्म को नोंचने वालों,
मैं नंगेली की वारिस बदला लेकर रहूंगी.

शोषण की सारी कथाएं याद है मुझे,
मां-बहनों की बिलखती व्यथाएं याद है मुझे,
उन्हे उनके कारनामें याद हों ना हों,
पर झाडू-मटका की प्रथाएं याद है मुझे।.

धर्म के नाम पर ईमान बेचा गया,
धर्म का अपमान हुआ सम्मान बेचा गया,
कैसा यह गुण-कर्म महान है तुझमें?
किस मुंह से कहए हो इंसान है तुझमें?

तूने मेरे जिस्म पर अपना दागी नाम लिखा,
मैंने तेरे जिस्म को अपने बदले से दाग दिया.
तू होगा अपने बंगए का राज साहब,
मैंने सिर्फ तेरे आगाज को अंजाम दिया.

स्वतंत्रता जो सिखाए बौद्ध वह धम्म है,
जिसमें छिपी करुणा-मैत्री का मर्म है.
अपने पुरखों के संदेशों को अपनाती हूं मैं,
तथागत बुद्ध की शरण में जाती हूं मैं.

बीहड़ छोड़ बुद्ध की राह चली हूँ,
छोड़ सारी नफरतों की स्याही चली हूँ.
भारत को पुन: प्रबुद्ध बनाने चली हूँ,
आम्बेड़कर ज्ञानदीप जलाने चली हूँ.

(लेखक: सूरज कुमार बौद्ध)

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