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Monday, June 9, 2025

कविता: क्या यही है हमारी आज़ादी ?

रोज सहें हम अत्याचार, महिलाओं का जीना है दुश्वार,
कभी मल-मूत्र खिलाते, तो कभी हमें नग्न घुमाते,
मूँछ रखने पर जान गंवाते, मटके से दूर भगाये जाते,
दलितों का शोषण कर, धर्म का रोज जाप कराते,
हक़ अधिकार को रो रही है बहुजन आबादी।
क्या यही है हमारी आज़ादी ?

हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई, ये बात अब पुरानी हो आई,
नफरत भर इंसानों के बीच, हिंदू-मुस्लिम में आग लगाई,
कभी जला उठा साकेत, तो कभी हरियाणा इन्होंने जलाई,
मानवता को शर्मसार कर, मनुष्यता की जयकार लगाई।
भाई-भाई के रिश्ते की ये बर्बादी, क्या यही है हमारी आज़ादी ?

हम तो हिन्दू भी न थे, जबरन बनाये गये,
फिर धर्म की भट्टी मे, रात-दिन जलाये गये,
अछूत बताकर मंदिरों से कोसों दूर भगाये गये,
खतरे मे है धर्म, कह कर हम आपस मे लड़ाए गये।
फिर हमसे ही हमारे भाइयों की लाशे जलवाई,
जिस धर्म के चलते संविधान की धज्जिया उड़ाई,
वह धर्म नहीं, आतंक की आंधी है,
फिर भी ये हुकूमत उसके चरणों में शीश नवाती है।
क्या यही है हमारी आज़ादी ?

बहन-बेटियाँ डर-डर कर सांसे लेती, हम हर पल घबराते हैं,
सुनते रोज रेप की खबरें, हम तो आधे खुद ही मर जाते हैं,
कभी खेत में, कभी रेत में, गला दबाकर हमें दफनाते हैं,
हुकूमत हमको कानून सिखाती, अपराधी हमको दांत दिखाते हैं,
यह सब सुनकर आंखें भर आती, क्या यही है हमारी आज़ादी ?

(कवि : शैलजाकान्त इन्द्रा, विधि छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय)

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