बहुजन चेतना का संकट और बसपा की प्रासंगिकता
हाल ही में हमारी भेंट एक दलित क्लास-2 गजेटेड अधिकारी से हुई। बातचीत में उन्होंने प्रश्न उठाया, “पिछले दस वर्षों में मायावती ने क्या किया?” हमने उत्तर दिया कि बसपा इस अवधि में सत्ता से बाहर रही है; आप कार्य की क्या अपेक्षा करते हैं? उन्होंने तर्क दिया, “क्या बसपा के लोग पीड़ितों के घर जाते हैं? राहुल, प्रियंका गांधी और अन्य दलों के सांसद-विधायक तो जाते हैं।” हमने कहा कि बसपा ने हर क्षेत्र में पदाधिकारी नियुक्त किए हैं, जो पीड़ितों से मिलते हैं, एफआईआर दर्ज कराते हैं और हर संभव सहायता करते हैं। फिर उन्होंने पूछा, “मायावती स्वयं कितने घरों में गईं?” हमने प्रतिप्रश्न किया, “सोनिया गांधी, नरेंद्र मोदी, जेपी नड्डा कितने घरों में गए? कम से कम एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की तुलना अन्य राष्ट्रीय अध्यक्षों से करें, न कि सांसदों या विधायकों से।” यह सुनकर वे इस विषय से हट गए।
उनका अगला प्रश्न था, “मान्यवर साहेब की बात अलग थी, किंतु मायावती भटक गई हैं। क्या उन्होंने किसी गरीब की बेटी की शादी कराई या सहायता की?” हमने कहा, “क्या बसपा का गठन शादियाँ कराने के लिए हुआ था? क्या मान्यवर साहेब ऐसा करते थे, जो बहनजी उनके मार्ग से हट गईं?” उन्होंने स्वीकार किया, “ठीक है, मान लेते हैं, किंतु मृत्यु होने पर बसपा नेता क्यों नहीं जाते? अन्य दल अर्थियों को कंधा देते हैं, इससे लोग जुड़ते हैं।” हमने तथ्य रखा, “2021-22 में उत्तर प्रदेश बसपा अध्यक्ष भीम राजभर ने सैकड़ों अर्थियों को कंधा दिया, बीमारों से अस्पताल में भेंट की, सहायता की, किंतु कितने वोट मिले? कितने लोग जुड़े?” यह सुनकर वे मौन हो गए।
हमने आगे कहा कि बहुजन समाज अपने अधिकारियों को सम्मान की दृष्टि से देखता है। युवा उन्हें प्रेरणास्रोत मानते हैं, उनकी बातों पर विश्वास करते हैं। किंतु इन युवाओं को क्या पता कि उनके समाज का पढ़ा-लिखा और अधिकारी वर्ग अक्सर पान की गुमटी या नाई की दुकान जैसा ज्ञान रखता है। वे अपनी पदवी और आयु को अपनी योग्यता और सामाजिक योगदान समझ बैठते हैं। इस संदर्भ में मान्यवर साहेब का अनुभव प्रासंगिक है। जब वे उत्तर प्रदेश में संघर्ष कर रहे थे, तब बहुजन समाज के अधिकारियों (आईएएस, पीसीएस, आईपीएस) ने कांग्रेस और मनुवादी संगठनों के इशारे पर उनके और बसपा के खिलाफ दुष्प्रचार किया। मान्यवर ने कहा था, “हमारा विरोध करना इनका धंधा है” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। उनके परिनिर्वाण के बाद भी यह वर्ग भाजपा, कांग्रेस, सपा और मनुवादी दलों के इशारे पर बहनजी और बसपा के खिलाफ प्रचार कर रहा है। यह धंधा आज भी जारी है।
बामसेफ, डीएस-4 से लेकर आज तक इस अधिकारी वर्ग की बसपा और बहुजन आंदोलन के प्रति नकारात्मक सोच अपरिवर्तित रही। बसपा सरकार ने उनकी योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर उन्हें शीर्ष पदों पर नियुक्त किया, जबकि कांग्रेस, भाजपा और सपा ने उन्हें हाशिए पर रखा। फिर भी वे पूछते हैं, “बहनजी ने क्या किया?” यह समझना होगा कि वंचितों का मुखर होना बहनजी और बसपा के योगदान का प्रमाण है। मान्यवर ने इस वर्ग की चमचागिरी को पहचाना था। वे कहते थे, “यह सही चमचा भी नहीं बन पाया, बल्कि मनुवादी चमचों का चमचा बन गया” (स्रोत: बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992)। आज भी यह वर्ग मनुवादियों के हाथों का औजार बनकर बसपा के खिलाफ प्रचार कर रहा है।
यदि बहुजन समाज के अधिकारी सड़कछाप सोच से संचालित होंगे, तो समाज का हश्र सामने है। आज यदि बहुजन की राजनैतिक अस्मिता कमजोर हुई, तो इसके लिए पार्टी से अधिक यह गुमराह अधिकारी, बुद्धिजीवी, डॉक्टर, लेखक, इंजीनियर और प्रोफेसर जिम्मेदार हैं। यह वर्ग न कैडर कैंप में शामिल होता है, न अध्ययन करता है। यह आरक्षण से प्राप्त पद और आयु को अपनी मेरिट मानता है, और बुद्ध, बाबासाहेब, मान्यवर के सिद्धांतों, सूत्रों और कार्यशैली से अनभिज्ञ रहता है। इसका एक हिस्सा मनुवादी सवालों को लपककर बसपा के खिलाफ प्रचार करता है, जिससे आंदोलन की जड़ें कमजोर होती हैं। जो इसे प्रेरणास्रोत मानते हैं, वे भी अनजाने में आंदोलन को क्षति पहुँचा रहे हैं। यहाँ कमी बसपा में नहीं, बहुजन समाज की सोच में है।
इसीलिए मान्यवर इस समाज को “नालायक” कहते थे। उन्होंने इस नालायकी को दूर करने का प्रयास किया, किंतु यह लायक बनना नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में बसपा और आंदोलन में आस्था रखने वालों पर बड़ी जिम्मेदारी है। बसपा की मजबूती ही बहुजन समाज को चमचागिरी के युग से मुक्त कर सकती है। एकजुट होकर बसपा को सशक्त करना होगा, ताकि अपनी शर्तों पर सरकार बनाकर समतामूलक समाज का सृजन हो सके। यह भारत के राष्ट्र निर्माण का मार्ग है। अन्यथा, यह वर्ग और उसकी गुमराह सोच आंदोलन को और कमजोर करेगी।
(12 अप्रैल 2022)
स्रोत और संदर्भ :
- मान्यवर कांशीराम, “चमचों का धंधा,” बहुजन संगठक, 10 मई 1990, अंक 5, वर्ष 8।
- “चमचों का चमचा,” बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992, अंक 12, वर्ष 10।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “शिक्षा और संगठन,” संकलित रचनाएँ, खंड 1, 1936।
- प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन बुद्धिजीवियों की भूमिका,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015।
- बसपा आधिकारिक बयान, “संगठन और समाज,” 2021।