परिचय
देहुली दलित नरसंहार, जो 18 नवंबर 1981 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले (तत्कालीन फिरोज़ाबाद क्षेत्र) के देहुली गाँव में हुआ, भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है। इस घटना में 24 दलितों, जिनमें महिलाएँ और बच्चे शामिल थे, की एक डकैत गिरोह द्वारा बेरहमी से हत्या कर दी गई। यह नरसंहार न केवल जातिगत हिंसा का एक जघन्य उदाहरण था, बल्कि इसने देश की कानून-व्यवस्था, पुलिस प्रशासन और न्यायिक प्रणाली की विफलताओं को भी उजागर किया। 44 साल बाद, मार्च 2025 में, मैनपुरी सत्र अदालत ने तीन दोषियों को मृत्युदंड की सजा सुनाई, लेकिन यह न्याय अधूरा ही माना जा रहा है, क्योंकि 13 अभियुक्त मर चुके हैं या 4 फरार हैं। यह शोध लेख देहुली नरसंहार के ऐतिहासिक संदर्भ, इसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव, न्याय में देरी के कारणों और दलित समाज के समक्ष मौजूदा चुनौतियों का विश्लेषण करता है।
ऐतिहासिक संदर्भ और घटना का विवरण
देहुली नरसंहार उस समय हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह (वी.पी. सिंह) उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। 18 नवंबर 1981 की शाम को डकैत संतोष सिंह (उर्फ संतोसा) और राधेश्याम सिंह (उर्फ राधे) के नेतृत्व में एक सशस्त्र गिरोह ने पुलिस की वर्दी पहनकर देहुली गाँव पर हमला किया। चार घंटे तक चली अंधाधुंध गोलीबारी में 24 दलितों की जान चली गई, जिनमें 7 महिलाएँ और 2 बच्चे (6 महीने और 2 साल के) शामिल थे। पुलिस चार्जशीट के अनुसार, इस नरसंहार का कारण एक दलित, कुंवरपाल जाटव, और एक अगड़ी जाति की महिला के बीच मित्रता थी, जिसे हमलावरों ने अपनी जातिगत प्रतिष्ठा पर आघात माना। इसके अतिरिक्त, यह हमला उन दलित गवाहों से बदला लेने के लिए भी था जो उच्च जाति के अपराधियों के खिलाफ गवाही दे रहे थे।
घटना के 10वें दिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 27 नवंबर 1981 को देहुली का दौरा किया और पीड़ित परिवारों को न्याय का आश्वासन दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने गांव का दौरा जरूर किया था लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी भी देहुली के दलितों को समय से न्याय नहीं दिला सकी। इससे कांग्रेस और श्रीमती इंदिरा गांधी की मंशा भी शक के दायरे में है। श्री वी पी सिंह की पुलिस तो पहले से ही उनके स्वजातियों को बचाने का प्रयास करती रही। परिणाम यह हुआ कि पुलिस/अभियोजन पक्ष ने हत्यारों का अपराधिक इतिहास कोर्ट में प्रस्तुत नहीं किया। यह तथ्य कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है। मतलब कि कोर्ट ने अपने फैसले से श्री वी पी सिंह और उनकी पुलिस के गैर-जिम्मेदाराना रवैए को उजागर कर दिया है। विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी देहुली से सदुपुर, फिरोज़ाबाद तक पदयात्रा कर एकजुटता दिखाई। इसके बावजूद, नरसंहार के बाद दलितों का गाँव से सामूहिक पलायन हुआ, और महीनों तक पुलिस तैनात रही ताकि सुरक्षा बहाल हो सके। यह सामाजिक उथल-पुथल और गहरे जातिगत तनाव का स्पष्ट उदाहरण था जो आज भी दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार के तौर बहुत सरलता से देखने को मिलता रहता है।
कानूनी प्रक्रिया और हालिया फैसला
नरसंहार के अगले दिन, 19 नवंबर 1981 को, लायक सिंह ने जसराना थाने में एक प्राथमिकी (FIR) दर्ज की, जिसमें 20 व्यक्तियों पर हत्या (IPC धारा 302), हत्या का प्रयास (IPC धारा 307), और डकैती के साथ हत्या (IPC धारा 396) जैसे आरोप लगाए गए। कानूनी प्रक्रिया शुरू तो हुई, लेकिन यह बेहद जटिल और लंबी साबित हुई। मामला मैनपुरी से इलाहाबाद और फिर अक्टूबर 2024 में वापस मैनपुरी स्थानांतरित हुआ, जिससे न्याय में भारी देरी हुई।
44 साल बाद, 12 मार्च 2025 को, मैनपुरी की विशेष डकैती अदालत ने तीन अभियुक्तों—कप्तान सिंह, रामपाल, और राम सेवक—को दोषी ठहराया। ये सभी 60 वर्ष से अधिक उम्र के थे। 18 मार्च 2025 को, उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। साथ ही, प्रत्येक पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया। अदालत ने इस मामले को सबसे दुर्लभ करार देते हुए कहा कि यह अपराध कानून-व्यवस्था और मानवता पर एक कलंक था। हालाँकि, मुकदमे के दौरान 13 अभियुक्तों की मृत्यु हो चुकी थी, और चार अभी भी फरार हैं, जिन्हें पुलिस पकड़ने में नाकाम रही।
कोर्ट के फैसले में यह भी उल्लेख किया गया कि पुलिस और अभियोजन पक्ष ने हत्यारों का आपराधिक इतिहास प्रस्तुत नहीं किया। यह तथ्य वी.पी. सिंह के प्रशासन की निष्क्रियता और पक्षपात को उजागर करता है। इस विफलता ने न केवल मुकदमे को कमजोर किया, बल्कि यह भी संकेत दिया कि पुलिस प्रशासन ने तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री वी पी सिंह के इशारे पर उनके स्वजातीय अगड़ी जाति के अपराधियों को बचाने की कोशिश की।
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
देहुली नरसंहार ने दलित समाज में गहरा आक्रोश और असुरक्षा की भावना पैदा की। यह घटना सत्तारूढ़ जातियों द्वारा हाशिए पर धकेले गए समुदायों पर किए गए अत्याचार का एक ज्वलंत उदाहरण है। बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम ने हमेशा कहा था कि सत्ताधारी वर्ग अपने समाज के खिलाफ जुल्म नहीं करता, बल्कि कमजोर और वंचित समुदायों को निशाना बनाता है। देहुली की घटना इस कथन की पुष्टि करती है।
राजनीतिक रूप से, इस घटना ने तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न की। इंदिरा गांधी के दौरे और वाजपेयी की पदयात्रा ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में जरूर लाया, लेकिन समय पर न्याय सुनिश्चित करने में कांग्रेस और वी.पी. सिंह दोनों विफल रहे। वी.पी. सिंह ने कहा था, “देहुली मुद्दे पर मेरा इस्तीफा महत्वपूर्ण नहीं है, कानून-व्यवस्था है,” लेकिन उनके प्रशासन की नाकामी ने उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए। हैरानी की बात यह है कि आज भी कुछ दलितों में कांग्रेस और वी.पी. सिंह के प्रति सहानुभूति देखी जाती है। यह एक विडंबना है कि जिस दौर में यह जघन्य अपराध हुआ, उसी दौर के नेताओं के प्रति सहानुभूति एवं कांग्रेस जैसी मनुवादी पार्टी को दलित समाज का एक हिस्सा अब भी समर्थन देता है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या दलित समाज अपने अतीत के अत्याचारों को भूल गया है?
न्याय में देरी और व्यवस्था की विफलता
देहुली नरसंहार के पीड़ितों को न्याय मिलने में लगभग आधी सदी (44 साल) लग गई। इस दौरान 20 अभियुक्तों में से 13 की मृत्यु हो चुकी है, चार फरार हैं, और केवल तीन को सजा मिली है। यह देरी पुलिस की अक्षमता, न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता, और प्रशासनिक लापरवाही का परिणाम है। कोर्ट ने अपने फैसले में पुलिस और अभियोजन की विफलता को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया, जो यह दर्शाता है कि व्यवस्था ने दलितों के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई।
यह अधूरा न्याय देश की न्यायपालिका, पुलिस, और प्रशासन पर सवालियां निशान है कि लगभग आधी सदी बाद न्याय मिला भी तो अधूरा, क्यों? दलित समाज के लिए यह सवाल और भी गंभीर है कि आखिर उन्हें समय पर न्याय क्यों नहीं मिलता? यह स्थिति उनके कानूनी प्रणाली में विश्वास को कमजोर करती है और उनकी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को प्रभावित करती है। फिलहाल देहुली में दलितों के नरसंहार से स्पष्ट है कि किस तरह सत्तारुढ़ उच्च जातियों ने दलितों का बड़ी क्रूरता से नरसंहार किया था। यह पड़ताल करके ही मान्यवर साहेब कहते थे कि हुक्मरान समाज के साथ कभी भी जुल्म-ज्यादती नहीं होती है। इसलिए बहुजन समाज को हुक्मरान समाज बनाना होगा।
मान्यवर कांशीराम और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने हमेशा दलितों को सत्ता और कारोबार की बागडोर अपने हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया। देहुली नरसंहार जैसे मामले यह स्पष्ट करते हैं कि जब तक दलित समाज संगठित होकर अपनी शक्ति का इस्तेमाल नहीं करेगा, तब तक उसे अधूरा न्याय ही मिलेगा।
निष्कर्ष
देहुली दलित नरसंहार भारत की सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था की कमियों को उजागर करने वाली एक त्रासदी है। 44 साल बाद मिला यह अधूरा न्याय न केवल पीड़ित परिवारों के लिए, बल्कि पूरे दलित समाज के लिए एक सबक है। यदि दलित समाज अपने शोषणकर्ताओं को भूलकर उन्हें समर्थन देता रहेगा, तो उसकी अपनी साख और आत्मसम्मान खतरे में पड़ सकता है। अब समय आ गया है कि दलित समाज बाबासाहेब और मान्यवर साहेब के सपनों को साकार करे—न केवल अपने लिए, बल्कि देश के हर नागरिक के लिए न्याय और सम्मानपूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के लिए। यह तभी संभव होगा जब दलित समाज “याचक” की भूमिका छोड़कर “दाता” बनने की दिशा में कदम बढ़ाएगा और देश के कारोबार की बागडोर अपने हाथों में लेगा।
स्रोत और संदर्भ
- बीबीसी हिंदी, “उत्तर प्रदेश का देहुली जनसंहार: 24 दलितों की हत्या के 44 साल बाद फैसला,” 12 मार्च 2025।
- रिपब्लिक भारत, “44 साल बाद 24 दलितों को मिला न्याय, देहुली नरसंहार में कोर्ट ने 3 दोषियों को सुनाई फाँसी की सजा,” 18 मार्च 2025।
- एनडीटीवी इंडिया, “देहुली नरसंहार: 44 साल बाद 24 दलितों की हत्या पर इंसाफ,” 18 मार्च 2025।
- स्वदेश न्यूज़, “देहुली में हुए नरसंहार की पूरी कहानी,” 18 मार्च 2025।
- द हिंदू, “Dehuli Dalit Massacre: Three Sentenced to Death After 44 Years,” 18 मार्च 2025।
- इंडिया टुडे, “The Dehuli Incident: V.P. Singh Faces Criticism,” 1981 (आर्काइव)।
- एक्स (X) पोस्ट, यूज़र @IndraSahebJi, 19 मार्च 2025।