डॉ. अम्बेड़कर की किताब “गाँधी और कांग्रेस ने अछूतों के लिए क्या किया – What Gandhi and Congress Have Done to Untouchables?” के अनुसार 1885 से लेकर 1917 तक कांग्रेस के अधिवेशनों मे कभी अछूतों के सामाजिक सुधार (Social Reforms) के मुद्दे पर बात तक नही की जाती थी.
1895 में सुरेंद्रनाथ बैनर्जी की अध्यक्षता में एक बार कांग्रेस अधिवेशन में ये मुद्दा जरूर उठाया गया था, लेकिन तब भी बाल गंगाधर तिलक ने सामाजिक सुधारों की बात का तीखा विरोध करते हुए कांग्रेस का पंडाल तक जलाने की धमकी दे दी थी और उसके बाद ये मुद्दा 1917 मे कांग्रेस अध्यक्ष नारायण चंद्रवरकर की अध्यक्षता मे ही उठा था.
1917 के अधिवेशन में भी ये मुद्दा तब उठाना कांग्रेस की मजबूरी से ज्यादा कुछ नजर नही आ रहा था. क्योंकि 1917 मे अंग्रेजी शासन ने भारतीयों के लिए Limited Self Government देने का मन बनाकर मांटेग्यू और चेम्सफोर्ड को भारत के परिपेक्ष्य मे सामाजिक सुधार पर अपनी रिपोर्ट देने के लिए चुना था जो आगे चलकर भारत सरकार अधिनियम 1919 मे शामिल भी की गई थी. और इसी अधिनियम के तहत देश के लिए नई कानून व्यवस्था और शासन प्रशासन चलाने का निर्णय भी लिया गया था.
लेकिन, यहाँ मेरी एक बात समझ में नही आती कि कट्टर चितपावन ब्राह्मण बाल गंगाधर तिलक के “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हैं” जैसे दिल लुभावन नारे मे अछूतों के लिए स्वराज का मतलब क्या निकलता है? जब 1895 में कांग्रेस अधिवेशन में तिलक वाला ग्रूप अछूतों के सामाजिक सुधार के मुद्दों पर कांग्रेस के पंडाल को आग तक लगाने की धमकी दे चुके थे.
1917 के आगे कांग्रेस का अछूतों के प्रति क्या रूख रहा था, ये काफी कुछ गाँधी जी के आसपास ही घूमता नजर आता है. 1919 तक कांग्रेस मे महात्मा गाँधी का बोलबाला हो चुका था और गाँधी ने कुछ ही सालों में कांग्रेस को कुछ प्रबुद्ध लोगों के समूह से आम लोगों की एक बड़ी पार्टी बना दिया था. चार आने के भुगतान करने पर लोगों को कांग्रेस का मैम्बर बनाना शुरू करवाया गया था, करोड़ों का फंड भी इक्कठा किया गया था.
गाँधी ने अछूतों के सामाजिक सुधार की बातें तो बड़ी-बड़ी की थी, लेकिन धरातल पर गाँधी हिन्दुत्व और वर्ण व्यवस्था के समर्थक ही बने नजर आते थे. साल 1928 तक गाँधी अछूतों की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक हालात पर सिवाय अफसोश जाहिर करने के अलावा कुछ न कर सके थे. कांग्रेस और गाँधी ने 1928 में सामाजिक सुधार पर ऱिपोर्ट देने के लिए अंग्रेजी सरकार द्वारा बैठाए कमीशन “साइमन कमीशन” के विरोध मे “साइमन गो बैक” के नारों में अछूतों के सामाजिक सुधार मुद्दों पर पानी फिरवाने का ही काम किया.
इसके बाद में गाँधी और डॉ. अम्बेड़कर की अछूतों और शोषितों के मुद्दे पर जो टकराव थे वो 1932 में अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन कानून के पास होने के मुद्दे पर आमरण अनसन तक जा पहुँचा था. मतलब, अछूतों के राजनैतिक सशक्तिकरण के डॉ अम्बेड़कर फार्मुले पर गाँधी को घोर आपत्ति थी और इतनी घोर आपत्ति की चाहे जान ही क्यों न चली जाये लेकिन, अछूतों को पृथक निर्वाचन के जरिये सशक्त होना मंजूर नही था.
मेरी राय मे इस जिद्द के बाद अछूतों और शोषितों के लिए किसी महात्मा गाँधी का हमेशा महात्मा बने रहना नामुमकिन बन चुका था और यहीं से एक अछूत महार डॉ अम्बेड़कर का आने वाली सदियों के लिए बाबासाहब बन जाना तय हो चुका था.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह, ये लेखक के निजी विचार हैं)