होली का त्यौंहार भारतवर्ष में हर साल फाल्गुन माह में खूब धूमधाम से मनाया जाता है. हिंदू होली के त्यौंहार को रंगों का त्यौंहार मानते हैं. इस दिन लोग एक-दूसरे को अलग-अलग प्रकार के रंग शरीर पर लगाकर खुशियाँ जाहिर करते हैं. हिंदू धर्म के चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र) के लोग साथ में अछूत भी इस त्यौंहार को मना रहे हैं.
लेकिन, होली का त्यौंहार क्यों मनाया जाता है? होली की सच्चाई क्या है? क्या वास्तव में होली का त्यौंहार बहुजनों का है? क्या बहुजनों को होली मनानी चाहिए? इन सवालों के जवाब जानने के लिए आपको नीचे दी गई कुछ बातों को जरूर समझना चाहिए.
डिस्केलमर: नीचे लिखे गए कथ्य, कहानी आदि सोशल मीडिया से संकलित है. हम किसी भी कहानी, कथ्य, वाक्य, शब्द, पात्र आदि की वास्तविकता पर किसी भी प्रकार का दावा अथवा वायदा नही करते हैं. पाठक अपने विवेक और जिम्मेदारी से पढ़े.
#1 होलिका की वास्तविक कहानी
मैं “होलिका” हूँ, वही जिसे आप हर साल जलाते हैं, और फिर जी भरकर मेरी मौत पर जश्न मनाते हैं. आज मैं आपको अपने जीवन की सच्चाई बताना चाहती हूँ कि वास्तविकता क्या है.
मेरे बहुजन भाईयो, मेरा घर लखनऊ के पास हरदोई ज़िले में था. मेरे पिता का नाम कश्यप व माता का नाम दिति है. मेरे दो भाई थे राजा हिरण्याक्ष और राजा हिरण्यकश्यप. राजा हिरण्याक्ष ने आर्यों द्वारा कब्ज़ाई हुई सम्पूर्ण भूमि को जीत लिया था. यहीं से आर्यो ने षड़यंत्र रचना शुरू किया. मेरे भाई हिरण्याक्ष को आर्य वराहावतार ने धोखे से मार डाला. उसके बाद मेरे भाई राजा हिरण्यकश्यप ने अपने भाई के हत्यारों को हराकर खदेड़ दिया और वराहावतार (विष्णु) की पूजा पर प्रतिबन्ध लगा दिया. मेरे भाई हिरण्यकश्यप का एक पुत्र था प्रह्लाद. विष्णु ने नारद नामक आर्य से जासूसी कराकर प्रह्लाद को गुमराह किया. प्रह्लाद विष्णु से मिल गया तथा दुर्व्यसनों में पड़कर पूरी तरह आर्यों की शरण गया. सुधार के तमाम प्रयास विफ़ल हो जाने पर राजा ने उसे घर से निकाल दिया. अब प्रह्लाद आर्यो की मण्डली के साथ रहने लगा. परंतु मेरा (होलिका) स्नेह अपने भतीजे प्रह्लाद के प्रति बना ही रहा. मैं अक्सर भाई से छुपकर प्रह्लाद को खाना देने जाती थी.
फागुन माह की पूर्णिमा थी, बसंत पंचमी को मेरी मंगनी हो गई थी और फागुन पूर्णिमा के दूसरे दिन मेरी बारात आने वाली थी. अगले दिन मुझे अपनी ससुराल जाना था. मैंने सोचा कि आखिरी बार प्रह्लाद से मिल लूँ. उस दिन मैंने उपवास रखा और रात्रि में नए वस्त्र धारणकर प्रहलाद को खाना देने गई. पूर्णिमा की रात्रि में, मैं अप्सरा सी लग रही थी. प्रहलाद, सुरों के उदण्ड लड़कों से घिरा हुआ था. वे सभी नशे में चूर थे, मुझे देखकर उनकी नियत बिगड़ गई. उन्होंने मेरे साथ सामूहिक दुराचार कर मेरी हत्या कर दी. सबूत मिटाने के लिए उन्होंने मेरी लाश को शीघ्र जलाना चाहा. इसके लिए जिसके घर में जो मिला यथा छप्पर खाट चौकी आदि लाकर जला दिया. होलिका दहन के दिन उदंड लड़कों ने नशा खाकर दुराचार किया था इसलिए उन प्रतीकों को जिंदा रखने के लिए होली में लोग नशाकर महिलाओं के साथ बदसलूकी करते हैं. देहातों में इस दिन गरीब का छप्पर जला देते हैं. शहरों में हर चौराहे पर जिंदा वृक्ष काटकर जलाते हैं जिससे पर्यावरण की हानि होती है.
दूसरे दिन मेरे दुल्हे राजा, बिंदकी के रहने वाले इलोही अपनी गाती बजाती बारात के साथ घोड़े पर चढ़कर राजमहल की ओर बढ़ रहे थे. अचानक उन्हें मेरे जल मरने की सूचना मिली तो वे सन्न रह गए. रंग में भंग हो गया. चेतना लौटी तो उन्होंने अपनी दूल्हे वाली वेशभूषा को नोच-नोच कर फाड़ डाला और पागलों की तरह उस तरफ दौड़े जहाँ मुझे जलाकर मार डाला था. उन्होंने मेरी भस्म को शरीर पर मल लिया और वहाँ खड़े लोगों पर भी भस्मी को फेंकने लगे. वर्तमान में धुलेंडी इसी का परिवर्तित रूप है.
जब मेरे भाई राजा हिरण्यकश्यप को यह बात पता चली तो उन्होंने मेरे हत्यारों को पकड़ लिया और अपराधियों में उनका अपना पुत्र होने के कारण पंचायत द्वारा सजा दिलवाई. प्रजा ने आर्यों का बहिष्कार किया. प्रह्लाद ने कायरता/बुजदिली का कार्य किया था. इसीलिए प्रह्लाद के मुंह पर कालिख पोतवाकर (शायद यहीं से यह कहावत भी प्रचलित हुई “बुरी नजर वाले, तेरा मुँह काला”) माथे पर कटार से वीर (बहादुर) का विपरीतार्थक अबीर (कायर/बुजदिल) लिखवा दिया. यह निशानी बुजदिली का प्रतीक है, परंतु आज हम अबीर (गुलाल) खुशी-खुशी लगाते-लगवाते हैं.
परंतु आज समय के साथ आर्यो ने उस सच्चाई को छुपा दिया और उसका रूप बदलकर “होलिका दहन” और “होली का त्योहार” कर दिया. मेरे बहुजन भाइयों अब आप ही सोचो अपनी बहन-बेटियों के हत्यारे और बलात्कारियों के साथ कैसे पेश आना चाहिए. लेकिन आप तो मुझे ही जलाते हो वह भी हर वर्ष.
#2 आर्य-ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई मनगढ़ंत कहानी
आर्य-ब्राह्मणों द्वारा गढ़ी गई मेरी झूठी और मनगढ़ंत कहानी भी सुन लीजिए. जिसके अनुसार असुर राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद ईश्वर का अनन्य भक्त था. प्रहलाद की ईश्वर भक्ति हिरण्यकश्यप को पसंद नहीं थी. पिता के अनेक बार समझाने पर उसने ईश्वरभक्ति नहीं छोड़ी तो उसे कई बार मारने का प्रयास भी किया किंतु असफल रहा. एक दिन उसको याद आया कि उसकी बहन (होलिका) अर्थात प्रहलाद की बुआ को यह वरदान था कि वह आग में भी नहीं जलती है तो प्रहलाद को होलिका की गोद में बिठाकर जबरदस्ती जला देने की योजना बनाई. योजनानुसार एक लकड़ियों का ढेर बनाकर उसमें आग लगा दी गई और होलिका, प्रहलाद को साथ में लेकर बैठ गई किंतु लोगों ने देखा कि जिसे वरदान प्राप्त था वह जल गई और इश्वर भक्त प्रहलाद बच गया.
होली को बुराई के अंत के रूप में माना गया है तो होलिका में क्या बुराई थी? उसे आग में नहीं जलने का वरदान प्राप्त था तो उसे यह वरदान किसने दिया था? कब दिया था? किस खुशी में दिया था? किस तपस्या की पूर्ति पर दिया था? इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है?
जब होलिका को यह वरदान था कि अग्नि भी उसे जला नहीं पाएगी तो होली का अग्नि में कैसे जल गई? प्रहलाद क्यों नहीं जला? यदि प्रहलाद विष्णु भक्त होने तथा विष्णु का नाम लेने से अग्नि में नहीं चला तो यह तो विष्णु और विष्णु के समर्थक ब्राह्मणों की जीत हुई खुशी तो होलिका केवल ब्राह्मणों को ही मनानी चाहिए. यह पर्व तो मुख्य रूप से ब्राह्मणों का ही होना चाहिए तो इसे शूद्रों का त्यौहार घोषित क्यों कर दिया गया? होली का वास्तविक रहस्य क्या है? इस पर विचार करें.
अब इस घटना को त्यौहार का रूप देने में कौन सी खुशी की बात है? कुल मिलाकर इस त्यौहार को यह रूप देने के पीछे जो मुख्य कारण है वह है ब्राह्मणों की पेट भराई और बनियों की कमाई. पूजा-पाठ दान-दक्षिणा का संबंध ब्राह्मणों के पेट भराई से और संबंधित माल पटाखे रंग गुलाल मिठाई की बिक्री का संबंध बनियों की कमाई से है. जेबें खाली होती है बहुजनों की और घर बनते हैं ब्राह्मण-बनियों के.
#3 बहुजनों की होली एक फसल (नवान्नेष्टि) पर्व है
शुरू में होली दीपावली की तरह एक मौसमी उत्सव था. रबी की फसल घर में आने पर खुशी के उपलक्ष्य में इसे नवान्नेष्टि के रूप में मनाया जाता था. संस्कृत में किसी भी भुने हुए अधपके अन्न को होलक, हिंदी में होला कहा जाता है. फागुन पूर्णिमा के अवसर पर होने वाले इस पर्व में भुने हुए जौ की प्रधानता होने से इसका नाम होलक (कालांतर में होलिका-होलाका-होली) पड़ गया और दंपति चतुर्थी नामक ग्रंथ के अनुसार इसकी जाति भी निश्चित कर दी गई-होली शूद्र पर्व, श्रावणी उपाकर्म ब्राह्मणी पर्व, विजयदशमी क्षत्रिय पर्व, दीपावली वैश्य पर्व.
चैत माह के बाद मानसून आधारित कोई खेती नहीं होती है. इसलिए सभी किसान कृषि-उपकरण जैसे हल, हेंगा, जुआठ, बगना, पैना आदि को इस दिन पुजा कर अगले मानसून खेती के लिए रख देता है. यह परम्परा सिन्धुघाटी सभ्यता के मूलनिवासी पूर्वजों के काल में प्रचलित थी जो आज तक चली आ रही है.
भारत के सभी मूलनिवासी किसान जो प्रकृति के पूजक थे. कृषि-सामग्री जैसे जैसे हल-फाल, बृषभ आदि की पूजा करते थे क्योंकि ये खेती में सहायक होते हैं जिससे उनकी जीविका चलती थी.
बहुजन विचारक विजय कुमार त्रिशरण-“मूलनिवासी प्रकृति की पूजा करते थे, उनका मौसम, फसल आधारित पर्व था. ब्राह्मणवादियों ने होलिका की हत्या करके उसे हमारे पर्व पर प्रतिस्थापित कर दिया. और अपनी खुशी भी मूलनिवासियों पर प्रतिस्थापित कर दी. इसलिए होलिका व होलिका दहन भी मूलनिवासियों पर थोपे गये पर्व हैं.
#4 तथागत बुद्ध बनाम नरसिंह अवतार
बहन की इस निर्मम हत्या और पुत्र की नालायकी ने हिरण्यकश्यप को मानसिक रूप से तोड़ दिया था. सदमे से टूटते हिरण्यकश्यप को देखकर आर्य के सरदार विष्णु ने इस मौके का फायदा उठाने के लिए एक षड्यंत्र रचा. वह एक ऐसा जानवर बना जिसका सिर तो शेर का, बाकि शरीर मनुष्य का. प्रहलाद की सहायता से शेर बना (अथवा शेर का मुखौटा लगाकर) विष्णु हिरण्यकश्यप के घर में जा पहुंचा और धोखे से हिरण्यकश्यप को भी मारने में सफल हुआ. विष्णु के इस कुकृत्य को नरसिंह अवतार का नाम दे दिया गया. जबकि नरसिंह अवतार की कहानी बहुजनों के विद्रोह को रोकने की नियत से ली गई है, जो मनगढ़ंत है.
“नरसिंह” तो एक बहुत गौरवशाली नाम है पालि साहित्य में जिसे तथागत सम्यक बुद्ध के लिए प्रयोग किया गया है. बौद्धों की मानक पुस्तिका “बौद्धचर्या प्रकाश” में “नरसिंह गाथा” विद्यमान है. जिसमें तथागत बुद्ध को नरसिंह अर्थात “मानव जाति के महानायक” के रूप में चित्रित किया गया है. इसी महान शब्द के अर्थ का अनर्थ करने के लिए यहाँ पर नरसिंह शब्द को बलात घसीटा गया है.
नरसीह गाथा यहाँ सुने
अब मैं थोड़ा सा आपको अवतारों (आर्यों के सेनापति) के बारे में बता रही हूँ. जब आर्य भारत में आए तो उनका पहला अवतार था मत्स्यावतार. जिसका संघर्ष यहाँ के मूलनिवासी राजा शंखासुर से हुआ. दूसरा अवतार कच्छपावतार था जिसका संघर्ष यहाँ के मूलनिवासी राजा कश्यप से रहा. तीसरा अवतार वराहावतार था जिसका संघर्ष हिरण्याक्ष के साथ रहा. चौथा अवतार नरसिंह था जिसका संघर्ष हिरण्यकश्यप से रहा. जैसे ही राजा हिरण्यकश्यप की नरसिंह अवतार द्वारा धोखे से हत्या की गई, प्रहलाद को अपनी गलती का एहसास हुआ और नृसिंह आदि आर्यों को युद्ध करके खदेड़ दिया और एक सफल शासक बनकर राज किया. इसके बाद उनके पुत्र विरोचन राज्य करते हैं. उसके बाद महाप्रतापी राजा बलि का राज आता है जिसका संघर्ष पांचवें अवतार वामन अवतार से होता है.
बहुजन भाईयो, आप तो मेरे ही वंशज हो. तो क्या अब भी आप अपनी बहन होलिका को जलायेंगे? और जश्न के तौर पर उसे मनायेंगे?
फ़ैसला अब आपको करना है. आपके फ़ैसले और न्याय के इंतज़ार में.
आपकी बहन
होलिका.
(Disclaimer: यह लेख सोशल मीडिया से संकलित है. दैनिक दस्तक इस लेख की किसी भी प्रकार की पुष्टि नही करता है)