देवता, जाति और ब्राह्मणवादी व्यवस्था : एक समीक्षात्मक विश्लेषण
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की कुलपति प्रो. संतिष्ट्री धूलिपुडी पंडित ने हाल ही में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर लेक्चर सीरिज के अंतर्गत “Dr B R Ambedkar’s Thoughts on Gender Justice: Decoding the Uniform Civil Code” विषय पर अपने व्याख्यान में कहा, “कोई भी देवता उच्च जाति से संबंधित नहीं था। आप में से अधिकांश को हमारे देवताओं की उत्पत्ति को मानवशास्त्रीय दृष्टि से समझना चाहिए। कोई भी देवता ब्राह्मण नहीं है; सर्वोच्च स्तर पर क्षत्रिय हैं।” (स्रोत: जेएनयू आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति, मार्च 2025)। इस कथन के बाद सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियावादी बहस छिड़ गई कि कौन सा देवता किस जाति से संबंधित है। हमारे विचार में यह शोध का विषय है, न कि अनावश्यक विवाद का।
इस संदर्भ में कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं कि ब्राह्मण समाज में कोई ईश्वर क्यों नहीं जन्मा? यह प्रश्न पूछने वाले संभवतः मनुवादी वैदिक ब्राह्मणवादी व्यवस्था से परिचित नहीं हैं। श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सृष्टिकर्ता, संचालक और संहारक माने जाने वाले देवता भी संदीपन मुनि और वशिष्ठ जैसे ब्राह्मणों के समक्ष नतमस्तक हुए। इसका प्रमाण वैदिक साहित्य में उपलब्ध एक श्लोक से समझा जा सकता है:
देवों धीनं जगत् सर्वं, मंत्र धीनाश्च देवताः।
ते मंत्रा ब्राह्मण धीनाः, तस्मात् ब्राह्मणः देवता।।
(अर्थ : संपूर्ण विश्व देवताओं के अधीन है, देवता मंत्रों के अधीन हैं, मंत्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, अतः ब्राह्मण ही धरती पर साक्षात् देवता हैं।)
(स्रोत: मनुस्मृति, अध्याय 9, श्लोक 317, अनुवादित)
इस दृष्टिकोण से ब्राह्मणों की उपस्थिति में धरती पर किसी अन्य देवता की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। यदि जातियों और देवताओं के संबंधों का विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट होता है कि जब भी निम्न मानी जाने वाली जातियों ने ब्राह्मणवादी मान्यताओं, परंपराओं और वर्चस्व को चुनौती दी, तब ब्राह्मणों ने उन जातियों को नियंत्रित करने के लिए उनके बीच एक देवता की रचना की। इस रणनीति से इन जातियों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में आभासी प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने विद्रोह को त्यागकर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को स्वीकार कर लिया। आज भी ये समुदाय ब्राह्मणवाद के समर्थक बने हुए हैं।
यह तथ्य रेखांकित करता है कि क्षत्रिय या अन्य निम्न जातियों में जन्मे देवताओं का निर्माण इन समुदायों को अधीन बनाए रखने का एक साधन था। इतिहासकार रोमिला थापर ने इसे “सामाजिक नियंत्रण हेतु मिथकों का प्रयोग” के रूप में वर्णित किया है (स्रोत: थापर, “प्राचीन भारत का इतिहास,” 1990, पृ. 145)। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि देवताओं की संख्या उन जातियों द्वारा ब्राह्मणवादी वर्चस्व को दी गई चुनौतियों के समानुपातिक रही है। उदाहरण के लिए, श्रीराम (क्षत्रिय) और श्रीकृष्ण (यादव) जैसे देवताओं की रचना उन समुदायों के बीच प्रभाव स्थापित करने के लिए की गई, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बाहर अपनी पहचान स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे।
बहुजन समाज को इन विषयों पर शोध करना चाहिए, किंतु इन्हें अपना केंद्रीय मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। बहुजन समाज का एकमात्र लक्ष्य समतामूलक समाज की स्थापना है। इसके लिए बुद्ध, फुले, शाहू, अम्बेडकर, मान्यवर कांशीराम और बहनजी मायावती द्वारा दिखाए गए मार्ग पर निरंतर संघर्ष आवश्यक है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, “सत्ता और शिक्षा ही वह साधन हैं जो सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं।” (स्रोत: अम्बेडकर, “अनहिलेशन ऑफ कास्ट,” 1936, पृ. 47)। इस संदर्भ में बहुजन समाज को ब्राह्मणवादी मिथकों के जाल से बाहर निकलकर अपने मूल उद्देश्य पर केंद्रित रहना होगा।
स्रोत और संदर्भ :
- प्रो. संतिष्ट्री धूलिपुडी पंडित, व्याख्यान उद्धरण, जेएनयू आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति, मार्च 2025।
- “मनुस्मृति,” अध्याय 9, श्लोक 317, अनुवादित संस्करण, प्रकाशक: गीता प्रेस, गोरखपुर।
- रोमिला थापर, “प्राचीन भारत का इतिहास,” पेंगुइन बुक्स, 1990, पृ. 145।
- डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, “अनहिलेशन ऑफ कास्ट,” 1936, संकलित रचनाएँ, खंड 1, पृ. 47, प्रकाशक: भारत सरकार।
- के.एन. पणिक्कर, “जाति और धर्म का सामाजिक संदर्भ,” जर्नल ऑफ इंडियन हिस्ट्री, 2001, पृ. 23-25।


