भारतीय समाज सहस्राब्दी से वर्ण व्यवस्था में बंटा है. लिखित इतिहास का कोई पन्ना उठा लें, आपको वर्ण मिल जायेगा. चाहे वह वेद-पुराण हो या त्रिपिटक-महावंश. हर जगह आपको वर्ण-कर्म की व्यवस्था मिल जायेगी. जीवन को वर्ण और आश्रम में बांधने को धर्म माना जाता है यहां. हांलांकि कि इस वर्ण व्यवस्था से इतर भी लोग रहते थे, जिन्हें कभी अवर्ण कहकर धिक्कारा गया, तो कभी वर्णबाह्य मानकर समाज बहिष्कृत कर दिया गया, उन्हें अंत्यज और पंचम भी कहा गया.
महात्मा फुले और कार्ल मार्क्स लगभग समकालीन थे. फुले की मृत्यु 1890 में हुई थी, मार्क्स की मृत्यु 1883 में. हो सकता है कि दोनों एक-दूसरे का नाम जानते हो या नहीं भी जानते हो.
उस समय चीन में न माओवाद आया था, न रूस में कोई कम्युनिस्ट क्रांति हुई थी.
भारत में पहली कम्युनिस्ट पार्टी 1925 में बनी. दूसरी इससे टूटकर CPIM 1964 में बनी. तीसरी नक्सल पार्टी CPIML का गठन 1974 में बनी.
पहली पार्टी का 100 साल पूरे हो गये. पार्टी आज भी चल रही है, चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड है, भले नेशनल पार्टी से राज्य पार्टी बन गई. इसको चलाने वाले बहुत आशावादी हैं. उन्हें लगता है कि कभी न कभी वह दिन आएगा जब कम्युनिज्म लागू करेंगे.
CPIM राष्ट्रीय पार्टी है, अभी भी. लेकिन राष्ट्र में क्या कुछ होते रहता है, उससे कोई मतलब नहीं.
CPIML ने क्रांति की खातिर बंदूक दलितों के कंधे पर रखी, बंदूके चली धांय-धांय. दलित शहीद हुए, इस सपने की खातिर, धन-धरती बंट कर रहेगी. जब धन धरती बंटने की बात आई तो बुलेट से सीधे, बैलट पर आ गये और अर्द्ध सामंत की दलाली में लीन हो गये. पहले नीतिश कुमार की पूंछ पकड़ी और अब लालू का जूठन चाटने को तैयार हैं. दलितों की उर्जा, स्वत्व, स्वाभिमान इन अर्द्ध सामंतों के चरणों में समर्पित कर चुके हैं.
सन 1892 में जब बाबासाहब मात्र एक साल के भी नहीं रहे होंगे. महात्मा फुले का दो साल पहले 1990 में देहांत हो गया था. मार्क्स को मरे 9 साल हो चुके थे. लेनिन अभी कॉलेज में कानून की पढ़ाई कर रहा था. हमारे परदादा मजदूरी और खेती किसानी कर रहे होंगे.
उस समय मद्रास में एक अंग्रेज आई. ए. एस. ने Depressed Class land Act 1892 बनाकर दलितों को करीब बारह लाख एकड़ जमीन आवंटित की थी.
12 लाख एकड़ जमीन कम जमीन नहीं होती है. आज भी वह जमीन संबंधित दलितों को दे दिया जाए तो हर परिवार को 5-10 एकड़ जमीन मिल सकती है.
इस अंग्रेज आई. ए. एस. को पहली बार समझ में आया था कि दलितों को जमीन दे दिया जाए तो वे बहुत ताकतवर महसूस करने लगेंगे.
आज भी जिसके पास गांव या शहर में प्लॉट हो, तो समझ लीजिए खुद के लिये राजा है.
आज भी इस जमीन को पंचमी लैंड बोलते हैं और सरकार निष्क्रिय है, चाहे वह स्टालिन की सरकार क्यों न हो, दलितों को 1892 में मिले लैंड दलितों को नहीं सौंपती हैं.
यह बात इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि करीब सौ साल बाद 1995 में जब यूपी में मायावती मुख्यमंत्री बनी और बसपा की सरकार आई तो तमिलनाडु के दलितों को भी उर्जा मिली और अपने पंचमी लैंड पर कब्जा के लिये आंदोलनरत हुये.
उसी तरह मराठावाड़ा विश्विद्यालय का नाम बाबासाहेब के नाम पर रखने के लिये बहुत समय से माहाराष्ट्र के दलित आंदोलनरत थे. नाम बदलने के लिये जब आंदोलन करते, सरकार पुलिस बुलाकर पीट-पीटकर भगा देती थी. जब बसपा कि सरकार बनी तो सरकारें बाबासाहेब के नाम पर संस्थानों, प्रतिष्ठानों के नाम रखने का कॉम्पटीशन करने लगी- हम आगे हैं, हम आगे हैं.
यह एनर्जी ढेड़ साल बसपा के समर्थन से मुख्यमंत्री रहे, मुलायम सिंह के सरकार से नहीं मिली थी.
पंचमी लैंड के लिए तमिलनाडु के दलित आंदोलनरत हुये, केस मुकदमे हुये, डिक्री लेकर आये. फिर भी तब से अब तक कई सरकार इस पंचमी (Depressed Class) जमीन पर दलितों को कब्जा नहीं दिलवा पायी. चाहे स्टालिन की सरकार ही क्यों न हो.
द्रविड़ आंदोलन का यह काला सच है. चाहे DMK हो या AIDMK , गैरदलित और गैरद्विज उनके आधार हैं, मतलब मिडिल जातियां, जो अर्द्ध सामंत हैं, जिसमें उनकी जाति भी है. उन्होंने ही पंचम लैंड को कब्जा कर रखा है. स्टालिन केवल भावनात्मक मुद्दे, द्रविड़-आर्य, हिंदी-तामिल, राम-रावण, आर्य-अनार्य में उलझाकर, क्रांतिकारी बनते हैं लेकिन, पंचम, एकम बन जाये, उसके लिये कभी प्रयास नहीं करेंगे. मनुव्यवस्था को बनाये रखने के लिये हर प्रयत्न और जतन करते हैं.
उतर भारत में यही अर्द्ध सामंती प्रवृत्ति अपर ओबीसी जातियों में आई है और वे चाहते हैं कि जो व्यवस्था है, वही बनी रहे और समाजिक परिवर्तन न हो. दलित हमेशा पांचवें स्थान पर रहे. क्योंकि वर्ण व्यवस्था में ये खुद चौथे स्थान पर हैं.
हम दलित इस पांचवें और प्रथम को बदल देना चाहते हैं. यह व्यवस्था खड़ी है, इसे लिटाना है. तब सब बराबर हो जायेंगे और यही समाजिक परिवर्तन होगा.
इसलिए केवल कांशीराम , समाजिक परिवर्तन के साहेब हैं और कोई नहीं. अभी राजनीति का कांशीराम काल चल रहा है. बहुजन बनाम अल्पजन.
फिर भी दलित हांसिए पर हैं!
दलित यह गांठ बांध लें. बुद्ध दूसरे नंबर के थे, वे पहले पर पहुंचना चाहते थे. नहीं पहुंच पाये. खड़ी व्यवस्था किसी काम की नहीं. यहां हर खेड़ी के उपर एक खेड़ी है.
इसे खड़ा से पट करना है, लिटाना है. जमीन पर लाना है. यह काम काल्पनिक नहीं है और न केवल कल्पना करने से कुछ होगा. वास्तविक स्थिति को पहचानना, उसे स्वीकार करना और व्यवस्था परिवर्तन के लिये काम करने पर ही यह संभव होगा.
वरना… वर्ण व जाति कभी नहीं जाएगी.
(लेखक: मनीष चांद, ये लेखक के अपने विचार हैं)