शहीद दिवस: 23 मार्च 1931 साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया. इतनी या इससे भी कम उम्र में क्रांतिकारी बलिदान की भावना से लैस होकर भगत सिंह की तरह खुशी-खुशी फांसी पर झूल जाने वाले नौजवानों की वीरता की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है. लेकिन इतनी कम उम्र में इतने प्रौढ़ चिंतन एवं लेखन से युक्त व्यक्तित्व कम मिलते हैं.
भगत सिंह के प्रचुर लेखन के बीच से उनका गहन अध्येता एवं चिंतक व्यक्तित्व सामने आता है. इसकी एक मिसाल समाज में साहित्य की भूमिका और भाषा एवं लिपि के प्रश्न पर उनके लेख में दिखती है. यह लेख 1924 या 1925 में लिखा गया था, जब भगत सिंह की उम्र करीब 17 या 18 वर्ष रही होगी. ‘पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या’ शीर्षक से यह लेख ‘पंजाब हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के आमंत्रण पर भगत सिंह ने लिखा था.
असल में यह एक निबंध प्रतियोगिता थी, जिसमें अन्य प्रतिभागियों ने भी हिस्सेदारी की थी. इस प्रतियोगिता में भगत सिंह के इस निबंध को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था और उन्हें इसके लिए 50 रूपए का ईनाम भी मिला था. यह लेख सम्मेलन के प्रधानमंत्री श्री भीमसेन विद्यालंकर ने सुरक्षित रखा था और भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फरवरी 1933 को ‘हिंदी संदेश’ में प्रकाशित किया.
भगत सिंह किसी देश के साहित्य को सामाजिक बदलाव की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते हैं और यह रेखांकित करते हैं कि समाज के उत्थान में साहित्य अहम भूमिका निभाता है. वे लिखते है- जिस देश के साहित्य का प्रवाह जिस ओर बहा, ठीक उसी ओर वह देश भी अग्रसर होता रहा…ज्यों-ज्यों देश का साहित्य ऊंचा होता जाता है, त्यों-त्यों देश भी उन्नति करता जाता है.”
अपने इस कथन की पुष्टि के लिए भगत सिंह इटली और आयरिश साहित्य का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि मैजिनी के क्रांतिकारी साहित्य के बिना गैरीबाल्डी की कल्पना करना मुश्किल था. रूसो, वाल्तेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रांति घटित नहीं हो सकती थी और टालस्टाय और अन्य लेखकों के साहित्य के बिना रूसी क्रांति असंभव सी थी.
फिर वे विस्तार से पंजाबी समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन में गुरुनानक सहित अन्य गुरूओं द्वारा रचे गए साहित्य के प्रभाव की चर्चा करते हैं और अनेक पदों को प्रस्तुत कर गुरुओं के साहित्य की जनपक्षधर संवेदना एवं चेतना का उदाहरण देते हैं. समाज में साहित्य की भूमिका पर उनकी टिप्पणी इस बात का जीता-जागता सबूत है कि इतनी कम उम्र में उन्होंने भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य के साथ विश्व साहित्य का भी व्यापक परिचय प्राप्त किया था.
अपने इस लेख में साहित्य की भूमिका पर टिप्पणी करने के बाद भगत सिंह भाषा के प्रश्न पर अपने विचार प्रकट करते हैं. वे लिखते हैं- “यह तो निश्चित ही है कि साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकता, परंतु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्कता होती है.”
वे वेबाक तरीके से फारसी-अरबी से भरी उर्दू और संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों से युक्त हिंदी की कड़ी आलोचना करते हैं और आम बोलचाल की सहज संप्रेषणीय भाषा का पक्ष लेते हैं. जनपक्षधर चिंतक के रूप में सच को खरा-खरा बयान करते हुए भगत सिंह पंजाब के मुसलमानों की इस बात के लिए आलोचना भी करते हैं कि धार्मिक कारणों से पंजाब में प्रचलित आम बोल-चाल की भाषा पंजाबी को अपनाने में उन्हें हिचक होती है और वे अरबी-फारसी युक्त उर्दू की तरफदारी करते हैं.
इसके साथ ही वे पंजाब में सक्रिय आर्य समाज की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि ये लोग कट्टरतापूर्वक पंजाबियों पर हिंदी थोपना चाहते हैं. इन दोनों के बीच वे पंजाबी भाषा का प्रश्न प्रस्तुत करते हैं. वे लिखते हैं- “इस समय पंजाब में तीन मत हैं. पहला मुसलमानों का उर्दू संबंधी कट्टर पक्षधरता, दूसरा आर्यसमाजियों तथा कुछ हिंदुओं का हिंदी संबंधी, तीसरा पंजाबी का.”
इन तीनों के भाषा और लिपि संबंधी दावों पर भगत सिंह विस्तार से विचार करते हैं. सबसे पहले उर्दू भाषा और उसकी अरबी लिपि पर अपनी राय रखते हैं, क्योंकि पंजाब में यही सबसे प्रभावी थी और इसे ही सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था.
वे अरबी लिपि और अरबी-फारसी युक्त उर्दू भाषा की पंजाबी समाज के भाषा एवं लिपि के रूप में दावेदारी को इस तर्क के आधार पर खारिज कर देतें हैं कि यह व्यापक पंजाबी समाज में बोल-चाल की प्रचलित भाषा नहीं है, भले ही सरकारी कामकाज और कुछ धार्मिक जरूरतों में इसका इस्तेमाल होता हो. भगत सिंह का कहना था कि पंजाबी भाषा ही आमजन के मनोभावों को साहित्य में प्रकट कर सकती है. इसके साथ ही वे पंजाबी समाज के साहित्य के लिए हिंदी को भी उपयोगी नहीं पाते हैं, भले राष्ट्रभाषा के रूप में वे हिंदी के पक्ष में थे.
वे साफ शब्दों में कहते हैं कि भारतीय समाज को एक बेहतर समाज में तभी तब्दील किया जा सकता है, जब भाषा के प्रश्न को धर्म के साथ न जोड़ा जाए। इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “ हमें भाषा आदि के प्रश्न को धार्मिक समस्या न बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिए.” भगत सिंह ने स्वयं भी भाषा एवं लिपि संबंधी अपने इस लेख में इसी विशाल दृष्टिकोण का परिचय दिया है.
भगत सिंह राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क के लिए एक भाषा और लिपि के तर्क से सहमति जताते हुए भी इस बात पर जोर देते हैं कि साहित्य का सृजन हमेशा आमजन की भाषा में ही होना चाहिए. इसकी कारण से उर्दू और हिंदी की जगह पंजाबी समाज के लिए पंजाबी भाषा के विकास और साहित्य सृजन पर को वे वरीयता देते हैं.
वे लिखते हैं- “सर्वसाधारण में साहित्यिक जागृति पैदा करने के लिए उनकी अपनी ही भाषा आवश्यक है. इसी तर्क के आधार पर हम कह सकते हैं कि पंजाब में पंजाबी भाषा ही आपको सफल बना सकती है.”
इस लंबे निबंध को पढ़ते समय सामान्य तौर किसी को भरोसा करना मुश्किल होगा कि यह 17-18 वर्ष के एक भारतीय युवा का आज से करीब 96 वर्ष पूर्व लिखा हुआ लेख है. अध्ययन की इतनी व्यापकता, विभिन्न भाषाओं के साहित्य का इतना ज्ञान, भाषा एवं लिपि की बारीकियों की, इतनी समझ और इतना प्रौढ़, सटीक और खरा चिंतन विरला ही देखने को मिलता है.
(केखक: डॉ सिद्धार्थ रामू; ये लेखक के अपने विचार हैं)