जून 09, 2022 को तय शुदा तारिख को हम तीसरी बार भारत सत्ता के केंद्र व राजधानी दिल्ली के लिए जाना था। सुबह तकरीबन साढ़े नौ के आस-पास घर से निकलता हूँ। बहुजन महानायकों-नायिकाओं के इतिहास को बयां करते शहर लखनऊ के आलमबाग बस स्टैंड से एक बजे की बस बची थी। हम भी जरूरी पूछताछ के पश्चात्प उस बस पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। बस मिल जाने के बाद एक सकून की साँस ली।
इसके पश्चात्म मन में एक अलग सी ख़ुशी थी। जहन में डॉ अम्बेडकर राष्ट्रिय स्मारक 26 अलीपुररोड, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट के साथ मध्यकालीन इमारते जैसे लालकिला, कुतुम्ब मीनार, इंडिया गेट जैसे ऐतिहासिक इमरतो का चित्र आँखों में तैर रहा था। हालाँकि हम अपने कुछ काम के चलते दिल्ली जा रहे थे परन्तु डॉ अम्बेडकर राष्ट्रिय स्मारक 26 अलीपुररोड, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट को पुनः विजिट करने की लालशा मन थी।
इसकी एक खास वजह भी हैं क्योंकि हम एलएलबी प्रथम वर्ष के छात्र हैं, तो इन सबके बारे में अभी हाल में ही पढ़ाया गया था। पहले इन जगहों को देखने का नजरिया कुछ और था परन्तु एलएलबी के पाठ्यक्रम को ज्वाइन करने बाद इनकों देखने के नजरियों में काफी बदलाव आया।
ये इमारते अब सिर्फ इमारते नहीं बल्कि भारत के लोकतंत्र के महानायक बाबासाहेब और लोकतन्त्र की बुनियाद के तौर पर जहन में घूम रहीं थी। मन में यहीं विचार बार-बार आ रहा था कि देश के सभी वंचित जगत के लोग कब डॉ अम्बेडकर राष्ट्रिय स्मारक 26 अलीपुर रोड जैसे धरोहर और उनकी वैचारिकी से प्रेरणा लेगें, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट में अपनी संवैधानिक व लोकतान्त्रिक भागीदारी को कब प्राप्त करेगें?
समाज के लोग एकजुट होकर बाबासाहेब के सपनों को आकर देने वाली बहुजन समाज पार्टी को कब केंद्र में स्थापित करेंगें? कब परम आदरणीया बहनजी भारत के शीर्ष सत्ता पर पहुँच कर लालकिले से देश को सम्बोधित करेंगीं? इसी उधेड़-बन में पड़ा था कि बस के चालक-परिचालक ने कमान संभाली, और बस आलमबाग से दिल्ली के सफर की तरफ रवाना हो चली।
बस सीतापुर से होकर दिल्ली चल रही थी। रास्ते में बालामऊ पड़ा वहाँ पर भुट्टे की हरी-भरी फसल मन को मोह रहीं थी। भुट्टे के पौधे हवा की मंद-मंद बयार से झूम रहे थे। मन कर रहा था कि हम भी उनके साथ थोड़ा सा झूम ले, कुदरत की यह सुन्दरता बांध रहीं थी। जिधर भी देखता उधर वही फसल दिखती। जितनी दूर तक नज़र जाती हमें ऐसा लगता जैसा ये सुन्दर-सुन्दर हरे-भरे झूमते पौधे हमें चिढा रहे हैं।
आगे चलकर हमें तरबूज और खीरे की खेती भी दिखी। खेत में पंछीयों के झुंड पके लाल तरबूजो का आनंद ले रहे थे, कुछ लोग खेतों की रखवाली करते हुए हरे-भरे खेतों में विचरण कर रहे थे। आलम ऐसा था कि मानों छोटे-छोटे बच्चे पंछियों संग लुका-छिपी खेल रहे थे। सड़क किनारे बड़ी-बड़ी बागों पर पंछी नफ़ा ले रहे थे। कुछ पंछी ची-ची, चू-चू कर रहें थे। इतनी में बस के करीब से पंछियों के एक झुण्ड गुजरा। आआआआ! एक साथ इतने सारे पंछी! पंछी इतने प्यारे लग रहे थे कि मन कर रहा था कि हम भी पंख लगाकर उनके साथ उनकी दुनिया में खुले आसमान में उड़ जाऊँ। प्रकृति की सुंदरता देखते-देखते दोपहर से शाम हो चली। आसमान में लालिमा फ़ैल रही थी।
ऐसा लग रहा था कि सूरज प्यारे-प्यारे सुन्दर-सुन्दर पंछियों को अपने घर जाने का रास्ता दिखा रहा हो। और पंछी भी मधुर आवाज़ में कलरव करते-करते अपने-अपने घर को लौट रहे हो। कुदरत की सुंदरता दिलों-दिमाग पर इस कदर छाया हुआ था कि रास्ते का घुमाव भी जंगल के पेड़ों के टहनियों की तरह लग रहे था। बस कभी इधर घूमती तो कभी उधर घूमती। कभी रूकती तो तुरंत चल पड़ती।
ऐसा लगता जैसे हम तेज हवा में पतंग पर सवार हो प्रकृति की संध्या का आनंद उठा रहे हैं। धीरे-धीरे ये सिलसिला रात की शान्ति में बदल गया, और हर तरफ अँधेरा-अँधेरा हो गया। बस रात की ठंडी हवा को चीरते हुए आगे बढ़ रहीं थी। कुदरत की सुंदरता में मन इतना खोया हुआ था कि कोरोना का ख्याल तक नहीं रहा।
रात में बस एक ढाबे पर रूकती है। वहाँ पर गरमा-गरम पकौड़े और हरी चटनी की खुसबू आ रही थी। वैसे तो हम बाहर का खाना जल्दी नहीं खाते हैं परन्तु आज हमसे रहा न गया, और हमने पकौड़े खाए और कोल्ड ड्रिंक पीया। फिर बस में आकर अपने सीट पर बैठ कर इर्द-गिर्द के लोगों को देख रहे थे। यहीं से एक अलग दुनिया शुरू हो गई। दुकानदार लोगों से मन चाहा पैसे लेकर अपनी जेब भर रहा था। दस की चीज पच्चीस में बेच रहा था। फिर भी लोग बिना सवाल किये ख़ुशी से अपना पेट भर रहे थे। किसी ने इस अनावश्यक पैसे की मांग का विरोध नहीं किया बल्कि ख़ुशी से पैसे देकर चलें आ रहे थे।
इतने में हमारी नजर एक पांच साल की बच्ची पर गई, जो बहुत पतली थी, बदन पर फटे कपङे थे, चेहरा भूख, गरीबी और लाचारी की मार से झुलस गया था। जो भी उसके पास से गुजरता वो नन्हीं बच्ची उससे कुछ पैसे मांगती, और हर बार कुछ न मिलने पर मन ही मन उदास होती। एक आदमी होटल से खाना खा कर गुजर रहा था, पैसे माँगने पर उसने नन्हीं बच्ची को डांट दिया और वो अचानक नजरों से गायब हो गई।

हमारी नज़रों ने उसको बहुत ढूँढा परन्तु वो कहीं दिखी ही नहीं। मानवता इस कदर बेआबरू हो चुकी हैं कि लोग अपना पेट भरने के लिए उचित मूल्य से अधिक पेमेंट सहर्ष कर दे रहे हैं लेकिन किसी लाचार भूख से तड़प रहीं बच्ची को बेरहमी से डाँट कर भगा दे रहे हैं।
आप शायद सोच रहे हो कि हमने उस बच्ची को कुछ क्यों नहीं दिया? हमने उस नन्हीं परी को खोजा पर मिली नहीं, यह दर्द हमें लगातार कचोट रहा था। आँखें नम हो गयी। इस घटना ने कुदरत की सुंदरता वाली तश्वीर को किनारे कर मन को दुःख के समन्दर में डुबो दिया।
बस कब चल पड़ी, कुछ ध्यान ही नहीं रहा। इसी उधेड़-बन में आँख कब लग गयी पता ही नहीं चला। रात में तीन बजे आंख खुली तो हम आनंद विहार के बस स्टेशन थे। हमने अपना बैग उठाया और अपने साथ के एक साथी, हमारी अगली सीट पर बैठे यात्रा कर रहे एक मुस्लिम भाई, के साथ पैदल पुल पर आकर बैठा था। हम दोनों बातें कर रहे थे। तब तक दोनों की नज़र तीन औरतों पर पड़ी। वे तीनों आते-जाते यात्रियों से जबरन पैसे ले रही थी और न देने पर लोगों को पकड़ कर जेब से पैसे निकाल लें रही थी, हालाँकि हमारे साथ नहीं हुआ। हमने सफर के साथी भाई से पूछा कि ये औरते ऐसा क्यों कर रही है? तो उन्होंने बताया कि भाई ये यहाँ आम बात है। इनका ग्रुप होता है और ये कुछ दूर पर अपने ग्रुप के आदमी खड़े किये रहती है और जो इंसान आना-कानी करता है या पैसे नहीं देता हैं तो सब मिल कर उसकी अच्छी खबर लेते है।
मैंने उसकी बात सुनी और मैं स्तब्ध रह गया। दुनिया भले ही तकनीक में आगे निकल गई हो पर ऐसे चित्र भारत की सामाजिक समस्याओं से रूबरू कराते हैं। समाज की असली तश्वीर प्रस्तुत करते है। क्या उन पुरुषों के पास कोई काम नहीं रहा होगा जो औरतों से ऐसा काम करा रहे थे? और अगर काम ही कराना था तो क्या कोई अच्छा काम नहीं मिला? देश के लोग पुरुष प्रधान देश का नारा सबसे पहले लगाते हैं। और फिर अपने मर्द होने पर नाज भी करते है। पर ऐसी मानसिकता मुझे कांटे की तरह चुभती है कि आज पुरुष समाज औरतों की गुलामी, लाचारी और संघर्ष पर जीवन बिता रहा है। फिर भी लोग देश को पुरुष प्रधान कह कर औरतों का अपमान करते फिरते हैं, क्यों? औरतों को समाज में सम्मानिय स्थान क्यों नहीं दिया जा रहा? ये बहुत बड़ा विषय है। इसका जवाब पाने के लिए बोधिसत्व विश्व रत्न राष्ट्र निर्माता मानवता मूर्ति शिक्षा प्रतिक संविधान जनक बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी को पढ़ना चाहिए। बच्ची भूख से बिलख रहीं थी, किसी ने कोई सुध नहीं ली। फिलहाल, इन सबके लिए भारत की सत्ता पर बैठे पूंजीवादी लोग ही जिम्मेदार हैं।
हम सफर में आगे चलते हैं, सुबह का इंतज़ार था और सुबह हो गई फिर हम दोनों अपने-अपने रास्ते निकल पड़े। हमें एक नई बात या यूं कहें कि भ्रष्ट लोगों के चरित्र से रूबरू होने का मौका मिला। यहाँ से हमारी यात्रा एक नया मोड़ देखती है। हम (मैं) स्टेशन से सिविल बस से कश्मीरी गेट के लिए रवाना होता हूँ, और उस बस के किराया लेने वाले इंसान को देखता हूँ, ओ एक ही स्थान पर जाने वाले अलग-अलग यात्रियों से अलग-अलग पैसे ले रहा था। बस से कश्मीरी गेट के लिए 15 रुपया लगता है और लेकिन वो किसी से 50 तो किसी 70 और हमारे बगल वाले अंकल से 90 रूपये वसूल लिया। जिसको जैसा देखता उससे वैसा पैसा लेता।
हालाकि मुझे भी 50 देने पड़े पर हमने अंत में उससे बोला कि इतना ज्यादा क्यों लिए, पैसे वापस करो तो बोला सीधे बैठ कर सफर करो, ज्यादा कानून न आए। हमने झगड़ा मोल न लेना चाहा, मन में आया कि इनकी पुलिस से शिकायत करुँ। इतने में आगे पुलिस वालो ने बस को रोकाया, आप ये मत सोचो कि हमने शिकायत कर दी। उससे पहले देखा कि बस में सब लोग अपने-अपने में व्यस्त हैं। और अंत में पुलिस वाला कुछ पैसे लेता है, और चला जाता है। यह देखकर सारा माजरा क्लियर हो गया।
ये शत-प्रतिशत सत्य हैं कि कानून व्यवस्था को काफी हद तक पुलिस के बुरे वर्ताव ने बिगाड़ रखा हैं। ये शायद गाली-गलौज और अपनी वर्दी की नजायज गर्मी के बिना किसी से बात करना सीखें ही नहीं। आज कल तो इनका रवैया वर्तमान हुकूमत की गद्दी सँभालने वाले मानवतामुक्त लोगों की वजह से इतना ज्यादा बिगड़ गया है कि इसकी कल्पना करना मात्र रुला देता है। समय की नजाकत को समझने की जरुरत है।
चलिए फ़िलहाल हम सफर पर वापस आते हैं। इस घटना को देखते समझते हम अपने मंजिल पर उतर गए। और फिर वहाँ से मुझे मुनिरका जाना था, JNU के पास, तो मैंने वहाँ पर कई ऑटो वालों से पूछा तो सबने 500-600 तक का किराया बताया जबकि 150 बहुत थे। मैं वहीं बैठ गया और बैठा ही रहा, कुछ समय में एक 50 साल के ऑटो वाले ने हमसे पूछा और हमें 180 रूपये में हमारे गंतव्य तक पहुंचने को बोला तो हम उसके ऑटो में बैठ गए। रास्ते भर हम यहीं सोचते रहें कि लोग ऑटो, टैक्सी वाले तक कितना भ्रष्ट हो गए, परन्तु इनके भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार की सूचीं में गिना ही नहीं जाता हैं। हकीकत तो यह हैं कि सरकारी संस्थाए बदनाम जरूर हैं लेकिन इससे ज्यादा भ्रष्ट गैर-सरकारी लोग हैं। और तो और, ये सरकारी लोग भी तो उसी गैर-सरकारी परिवार का हिस्सा हैं।
इस कोरोना महामारी में पूंजीवादी सरकार के रवैये ने देश का क्या हाल कर दिए हैं। उन इंसानों का क्या होगा जिनके पास जाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। सभी मौका-परास्त हो चुके हैं। पुलिस को हमारी मदद के लिए रखा गया है, परन्तु पुलिस देश की सबसे अनैतिक व् सबसे भ्रष्टविभाग हैं जो कि देश के सभी भ्रष्टाचारियो के साथ मिलकर आम जनता को मरने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
उन लोगों के व्यवहार और उससे हुए गरीबों के दर्द को सोच कर हमारी आखों में आंसू आ गए। यक़ीनन ये दुनिया बहुत स्वार्थी है, पहले का पता नहीं पर आज की दुनिया में सब अपने में मस्त है, खासकर शहरी दुनिया वाले। गाँव में तो आपको पूर्ण विश्वास के साथ मदद मिल जाएगा परन्तु शहर में बहुत कम।
फिलहाल इस प्रकार लखनऊ से दिल्ली का ये सफर ख़ुशी उमंग, प्रकृति के प्यार के साथ शुरू हुआ था और आँसुओ पर खत्म हुआ।
(लेखक: शैलजाकान्त इन्द्रा, विधि छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय, यह लेखक के अपने विचार हैं)