जब भी मैं इतिहास की ओर देखता हूँ,
मन परेशान सा उद्वेलित हो उठता है।
सोचता हूँ कि क्या सच में कोई ईश्वर है?
अगर हाँ तो वर्ण क्या है उस ईश्वर का?
पिघला शीशा काम उड़ेलना,
गर्म लोहे की रॉड मुँह में डालना,
कर्म कराकर फल छीन लेना,
ढोल, गंवार… के श्लोक सुनाना,
कमर में बंधी हुई सींक की झाडू,
गले का लटका हुआ मटका,
हमारी बहनों का जिस्म नोचना,
उफ्फ! रूह नहीं कांपी उस ईश्वर की?
किसी को धर्म का प्रतिरूप कह दो,
किसी को शुद्र-अछूत कह दो,
नहीं… जुल्म का जोर अब और नहीं।
हम जाति की जड़ को उखाड़ फेकेंगे
समता की आबोहवा तैयार करेंगे।
ताकि चहूंओर न्याय की सुगंध फैले,
समता मूलक समाज स्थापित हो।
शौर्य स्तंभ से प्रेरित हो,
संविधान से शासित हो,
लड़ेंगे कोरेगांव की तरह,
पढ़ेंगे भीमराव की तरह।
(रचयिता: सूरज कुमार बौद्ध)
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