भारतीय समाज जाति, जातिवाद एवं छुआछूत की अमानवीय व्यवस्था पर समाज है। यहाँ आज भी योग्यता उसकी खुद की काबिलियत से नहीं बल्कि उसकी जाति से तय होती है। किस व्यक्ति के साथ किस तरह का व्यवहार करना है, यह भी जाति ही तय करती है। भेदभाव की जड़, नीचे पायदान पर आने वाली जातियों की गरीबी व लाचारी की वजह भी जाति है। भारत को एक मजबूत सूत्र में बधने से रोकने वाली भी जाति है।
आधुनिक समय में जब तमाम तथाकथित महान लोग अपनी राजनैतिक सत्ता के लिए अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह रहे थे उसी समय बाबासाहेब भारत में मानवता की आज़ादी के लिए अकेले लड़ाई लड़ रहे थे। अध्ययन व शोध से स्पष्ट होता है कि राजनैतिक सत्ता के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने वाले सभी लोग जातिवाद के संरक्षक थे जबकि मानवता की आज़ादी के लिए लड़ने वाले बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर जाति, वर्ण व्यावस्था को खत्म करके समता बनी मूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे। परिणामस्वारूप बाबा साहेब ने “जाति का उन्मूलन”, जो कि 1935 में लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल में दिया जाने वाला भाषण था, को किताब का स्वरूप दिया! मान्यवर काशीराम साहेब भी जाति, जाति व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को खत्म करना चाहते थे! इसलिए उन्होनें हमें जातियों में बंटने से रोककर सकल शोषित पीड़ित समाज को बहुजन नाम से पुकारा है!
ध्यान रहे, जब किसी जाति विशेष को बढ़ावा दिया जाता है या उसकी जातिसूचक अस्मिता को स्थापित करने की कोशिश की जाती है जैसे कि ‘द ग्रेट चमार’ तो इससे बहुजन समाज का बोध न होकर एक जाति विशेष का बोध होता है। इसलिए इस प्रकार के नामों व विचारों से, जो बहुजन समाज देश का 85% हिस्सा है, स्वतः कई हिस्सों में टूट जाता है। परिणामस्वरुप, पूरा का पूरा बहुजन समाज कमजोर पड़ जाता है। यह स्थापित सत्य है कि कमज़ोर बनकर कभी कभी युद्ध नहीं जीता जा सकता है।
ध्यान देने योग्य है कि जाति के नाम पर गर्व करके जाति को खत्म नही बल्कि मजबूत ही किया जा सकता है। यही वजह है कि रैदास, कबीर, फूले, शाहू, अम्बेडकर, मान्यवर साहेब और बहनजी ने समतावादी आन्दोलन में ऐसे कारकों का किसी भी तरह से कोई इस्तेमाल नहीं किया है जिससे कि जाति व्यवस्था को मजबूती मिल सके। जाति पर दंभ करके जाति व्यवस्था को मजबूत करना मनुवाद को मजबूत करना है। यह वही कर सकता है जो या तो मनुवादी होगा या फिर मनुवादियों के हाथ चमचा होगा। बुद्ध रैदास कबीर फूले शाहू व अम्बेडकर की विचारधारा को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने वाला कोई भी चमार ‘द ग्रेट चमार’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कतई नही कर सकता है। यह जुमला मनुवादियों द्वारा चमार जाति के चंद चमचों के माध्यम से उछाला गया है। इसलिए शोषित समाज के सभी युवाओं व अन्य मानवता पसंद लोगों को ऐसे किसी भी जुमले से दूर ही रहना चाहिए।
हर दृष्टिकोण से शोध करने के बाद ही बहनजी जाति के संदर्भ में लिखतीं हैं कि –
‘भारत में तो जात-पात एक विकट और विकराल समस्या है और मनुवाद आधारित यह जाति-व्यवस्था तमाम बुराइयों की जननी है, जड़ है। अर्थात यह जाट-पात न केवल घातक बल्कि राष्ट्रद्रोही तत्व है, क्योंकि ये हमारे सामाजिक जीवन की समरसता और ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देती है।‘[1]
‘द ग्रेट’ के चलते शोषित जातियों एवं उपजातियों में जातीय कलह, जातीय वैमनस्य, जातीय भेदभाव, अत्याचार व संघर्ष बढ़ेगा। एक दूसरे से उच्च होने की होड़ को त्वरण मिलेगा जो कि शोषित समाज के शोषण को बढ़ावा ही देगा। नतीजा, बहुजन समाज खुद मजबूत होने के बजाय सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जातिवादी ब्रहम्णी व्यवस्था को ही मजबूत करेगा जबकि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ति बाबासाहेब डॉ अंबेडकर, बहुजन महानायक मान्यवर कांशीराम साहेब और सकल बहुजन समाज के अन्य सभी महानायकों / महानायिकाओं व खुद बहुजन समाज जाति-वर्ण व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को नेस्तनाबूत कर समतामूलक समाज व समतामूलक संस्कृति की स्थापना करना चाहता है।
हमारे निर्णय में, यदि जातिसूचक विचारों, संगठनों व संस्थानों के प्रयोग को विराम नहीं दिया गया तो इसी तरह से, “द ग्रेट चमार” जैसे नामों को बढ़ावा मिलता रहेगा और तो आने वाले समय में “द ग्रेट धोबी”, “द ग्रेट नाउ”, “द ग्रेट अहीर”, “द ग्रेट कुर्मी” व अन्य जाति विशेष के लोग भी इस तरह से “द ग्रेट” के रूप में सामने आते जायेगें जो कि मनुवाद को मजबूत करने का काम करेगा। परिणामस्वरूप, बहुजन समाज में एकता बनने के बजाए यह पूरा का पूरा बहुजन समाज कई हिस्सों में टूटता व बिखरता जाएगा जबकि शोषण से मुक्ति का रास्ता बिखरने में नहीं बल्कि संगठित रहने में निहित है।
हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यदि जाति व्यवस्था के तहत निचले पायदान की जातियों को राजनैतिक व आर्थिक तौर पर मजबूत कर दिया जाय तो ब्रहम्णी जाति व्यवस्था के उपरी पायदान पर बैठी जातियां, खासकर ब्रहम्ण, खुद जाति व्यवस्था को खत्म कर देगीं या जाति उन्मूलन के लिए आन्दोलन करेंगी। हमारा स्पष्ट मत है कि शोषित जातियों की राजनैतिक व आर्थिक मजबूती जाति व्यवस्था को खत्म तो नहीं कर सकती है परन्तु सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर उनके लोकतांत्रिक भागीदारी को जरूर सुनिश्चित कर सकती है। इससे उनके खिलाफ होने वाले अत्याचारों में होने वाली बेतहाशा वृद्धि पर लगाम जरूर लगेगी। उनकी आर्थिक स्थिति व रहन-सहन एवं शिक्षा आदि के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव जरूर आयेगा।
सवर्णों की लाहौर में नियत ‘जात-पात तोड़क मंडल सभा-1935’ में सवर्णों के लिए लिखें भाषण ‘जाति का उन्मूलन’ में बाबासाहेब कहते हैं कि ‘जाति के उन्मूलन हेतु पुरोहितों को चुनौती देते हुए हिन्दू धर्म शास्त्रों की सत्ता को नष्ट कर अंतरजातीय विवाह को सहर्ष स्वीकार करना होगा।’ स्पष्ट है कि यह कार्य शूद्र नहीं कर सकता है, इसके लिए सवर्णों को आगे आना होगा। जब तक सवर्ण आगे नहीं आयेगा तब तक जाति आधारित व्यवस्था को नष्ट नहीं किया जा सकता है।
हमारे निर्णय मे, ये जानते हुए कि राजनैतिक व आर्थिक सत्ता क्षणिक होती है जबकि सामाजिक व सांस्कृतिक सत्ता दीर्घजीवी है, ऐसे में सवर्ण अपनी चिरकालीन सत्ता को कैसे छोड़ सकता है? जब सवर्ण, खासकर ब्रहम्ण, बहुजनों से हर क्षेत्र में पराजित हो जाता है तो जातीय श्रेष्ठता के बल पर ही अपनी उच्चता, बुद्धिमत्ता, महत्ता व महानता को साबित करता है। ऐसे में, सवर्ण, खासकर ब्रहम्ण अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातीय उच्चता, सांस्कृतिक महात्ता को साबित व स्थापित करने के अपने अचूक हथियार को इतनी आसानी से नष्ट क्यों करेगा? सवर्णों, खासकर ब्रहम्णों, से जाति उन्मूलन की उम्मीद लगाना आत्मघाती निर्णय होगा? यही वजह थी कि बाबासाहेब लम्बे दौर के संघर्ष के अनुभव के आधार पर ही भारत में मानवता को स्थापित करने हेतु हिन्दू धर्म को परित्याग कर अपने मूल धम्म में वापसी करते हैं।
सनद रहे,
‘जाति, वर्ण-व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को मजबूत करके अंबेडकरवाद को कभी कायम नहीं किया जा सकता।’
एक-दूसरे से उच्च साबित करने के होड़ में लगी अछूत व शूद्र जातियों को यह समझना होगा कि जाति व वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करके सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणवाद को मजबूत किया जा सकता है, जाति, वर्ण-व्यवस्था व ब्रहम्णवाद को खत्म नहीं किया जा सकता है, और न ही बुद्ध-अम्बेडकरमय (न्याय- समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित) भारत की स्थापना की जा सकती है और न ही भारत राष्ट्र निर्माण किया जा सकता है।
जाति किस तरह अमानवीय एवं राष्ट्रद्रोही है, को बयान करते हुए बहनजी लिखतीं है कि –
‘ये जात-पात इसलिए भी राष्ट्रद्रोही है, क्योंकि ये एक जाति के लोगों में दूसरे जाति के लोगों के प्रति नफ़रत, भेद और ईर्ष्या पैदा करता है। कम-से-कम आज़ादी के 60वें साल में तो हमें इस सच्चाई को अपने दिलों-दिमाग में बैठा लेनी चाहिये। यही सब कारण है कि हम लोग बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले जात-पात का बीजनाश कर एक जाति-विहीन भारतीय समाज व्यवस्था बनाने के ले प्रयासरत और संघर्षरत हैं।’[2]
इसलिए शूद्र व वंचित जगत की जातियों को जातिगत दंभ, श्रेष्ठता व उच्चता के भाव एवं भावना, इनसे प्रेरित शब्दावलियों व विचारों से बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। और, बहुजन समाज को स्वतंत्रता, समता व बंधुता के एक धागे में पिरोने वाले ‘बहुजन’ शब्द को अधिक से अधिक प्रयोग में लाना चाहिए। इससे समग्र शूद्र जातियां, वंचित व आदिवासी जगत एक सूत्र में बधकर अपनी आत्मनिर्भर अस्मिता को बेहतर ढंग से कायम करते हुए जातिवादी नारीविरोधी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिंदू धर्म व इसकी संस्कृति के खिलाफ चल रहे महासंग्राम को न सिर्फ बेहतर ढंग से लड़ सकता है बल्कि बुलंदी के साथ फतेह भी सकता है।
ध्यान रहे, हमारी मुक्ति, (राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक) जाति, जातिव्यावस्था और ब्राह्मणवाद के खात्मे व समतामूलक समाज और संस्कृति की स्थापना में निहित है। इसलिए बहुजन समाज का लक्ष्य जाति, जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को नेस्तनाबूत करते हुए समतामूलक समाज व समतामूलक समाज व संस्कृति की स्थापना होना चाहिए। इसी में, शोषित समाज की मुक्ति व भलाई निहित है।
स्रोत:
[1] बहनजी, मेरे संघर्षमय जीवन एवं बहुजन मूवमेन्ट का सफरनामा,भाग-2, पेज नंबर- XXIV
[2] बहनजी, मेरे संघर्षमय जीवन एवं बहुजन मूवमेन्ट का सफरनामा,भाग-2, पेज नंबर- XXIV