नववर्ष संकल्प : बहुजन समाज की स्वतंत्र पहचान का सृजन
नये वर्ष के आगमन पर बहुजन समाज के समक्ष एक स्वर्णिम अवसर है कि वह अपनी संस्कृति, इतिहास, नायक-नायिकाओं के संघर्ष, उनके समतावादी विचारों और गौरव गाथाओं को जन-जन तक पहुँचाने का संकल्प ले। बहुजन आंदोलन ने जिस जागरूकता का बीज बोया, वह आज देश की बहुसंख्यक किंतु शोषित आबादी को उसके गौरवमयी अतीत और सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ चुका है। यह जागरूकता ही वह आधार है, जिस पर बहुजन समाज अपनी स्वतंत्र पहचान का भवन खड़ा कर सकता है। किंतु इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए पुराने ढर्रे को त्यागना होगा।
जब भी मनुवादी पर्व आते हैं, बहुजन समाज उनका विश्लेषण शुरू कर देता है। यह प्रवृत्ति उनकी मानसिक गुलामी का संकेत है। प्रारंभ में यह विश्लेषण मनुवादी षड्यंत्रों को उजागर करने और जागरूकता फैलाने के लिए आवश्यक था। इससे गुलाम समाज अपनी स्थिति पर चिंतन करने और अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करने को प्रेरित हुआ। किंतु समय के साथ, जागरूकता के प्रसार के बाद, मनु संस्कृति में जकड़े समाज को अपने स्वतंत्र विकल्प की आवश्यकता महसूस होने लगी। अब केवल आलोचना पर्याप्त नहीं; सृजन की ओर बढ़ना अनिवार्य है।
स्वतंत्र पहचान के संदर्भ में बहुजन समाज को यह समझना होगा कि मनु संस्कृति की निंदा मात्र से बहुजन संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता। मान्यवर कांशीराम ने कहा था, “हमें दूसरों की खींची रेखा को मिटाने के बजाय उसके समानांतर अपनी गहरी और बड़ी रेखा खींचनी चाहिए” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। अतः केवल विरोध से आगे बढ़कर अपनी अस्मिता के लिए सकारात्मक कार्य करना होगा। वर्तमान में बहुजन समाज मनु रीति-रिवाजों और पर्वों का या तो बहिष्कार कर रहा है या उन्हें बाबासाहेब और बुद्ध के नाम पर मनाने का प्रयास कर रहा है। प्रश्न उठता है : क्या इससे स्वतंत्र पहचान स्थापित होगी? उत्तर स्पष्ट रूप से नकारात्मक है।
इस दृष्टिकोण से बचने की आवश्यकता इसलिए है कि, प्रथम, यदि आप मनु पर्वों के बहिष्कार की निरंतर चर्चा करते हैं, तो भी केंद्र में मनु पर्व ही रहेंगे, जिससे उनकी महत्ता बढ़ेगी। द्वितीय, यदि बुद्ध और बाबासाहेब जैसे महानायकों के नाम पर हिंदू पर्वों को मनाते हैं, तो यह मनु संस्कृति को ही सशक्त करेगा। इससे मनुवादियों को बाबासाहेब और बुद्ध का ब्राह्मणीकरण करने का अवसर मिलेगा, जो और भी घातक होगा। “दीपदान उत्सव” जैसे प्रयोग, जिसे कुछ बहुजनों ने अज्ञानतावश अपनाया, इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सोचिए, यदि इनमें से कोई भी मार्ग अपनाया जाता है, तो क्या इससे स्वतंत्र पहचान बनेगी? उत्तर स्पष्ट है – नहीं, मतलब इस तरह से हमारा समय और संसाधन मनु संस्कृति को ही मजबूत करेंगे।
इसलिए बहुजन समाज को मनु संस्कृति का विश्लेषण छोड़कर उसके रीति-रिवाजों और पर्वों को नजरअंदाज करना चाहिए। इसके स्थान पर बहुजन आंदोलन से जुड़ी महत्वपूर्ण तिथियों को घर-घर महापर्व के रूप में मनाना होगा। उदाहरणार्थ, होली को दरकिनार कर उस पर खर्च होने वाले समय और धन को “अंबेडकर जन्मोत्सव” (14 अप्रैल) में लगाएँ। बाबासाहेब की जयंती को महापर्व बनाकर इसे जीवनशैली का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। इसी प्रकार, दीपावली के दीये को उजाले के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यदि यह केवल उजाले का प्रतीक है, तो 14 अक्टूबर—जब बाबासाहेब ने बौद्ध धम्म को पुनर्जनन देकर भारत को विश्वगुरु की पहचान दिलाई—को यह दीया जलाना अधिक सार्थक होगा। किंतु मनुवादी इसके लिए तैयार नहीं होंगे, क्योंकि दीपावली का दीया समतावादी संस्कृति के पतन और मनु संस्कृति की विजय का प्रतीक है। अतः दीपावली को मनाने से मनु संस्कृति ही सशक्त होगी।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं कि आप दीपावली कैसे मना रहे हैं या किसके नाम से दीया जला रहे हैं, बल्कि यह है कि आप इसे कब और किस तिथि पर मना रहे हैं। क्या इससे आपकी स्वतंत्र पहचान बनती है? क्या यह बहुजन आंदोलन को सकारात्मक दिशा देता है? स्पष्ट है कि यह मनु संस्कृति को ही बल देता है। अतः समतावादी संस्कृति का पक्षधर समाज यदि इसकी स्थापना करना चाहता है, तो उसे दीपावली जैसे पर्वों को नजरअंदाज कर उस पर खर्च होने वाले समय, श्रम और संसाधनों को 14 अक्टूबर को “दीक्षा दीप महोत्सव” के रूप में मनाने में उपयोग करना चाहिए। इसी तरह, बुद्ध पूर्णिमा, रविदास जन्मोत्सव, कबीर जन्मोत्सव, मान्यवर जन्मोत्सव, जनकल्याणकारी दिवस जैसी तिथियों को महापर्व बनाकर अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान स्थापित करनी होगी।
बहुजन समाज निम्नलिखित महापर्वों को अपनाकर अपनी अस्मिता को सशक्त कर सकता है: बुद्ध पूर्णिमा, अंबेडकर जन्मोत्सव (14 अप्रैल), दीक्षा दीप महोत्सव (14 अक्टूबर), मान्यवर जन्मोत्सव (15 मार्च), जनकल्याणकारी दिवस (15 जनवरी)। इसके अतिरिक्त, शौर्य दिवस (1 जनवरी), शिक्षक दिवस (3 जनवरी), रविदास जन्मोत्सव, कबीर जन्मोत्सव, फुले जन्मोत्सव, संविधान दिवस आदि तिथियों को भी उत्सव के रूप में मनाकर बहुजन समाज को अपने नायकों और उनके योगदान से जोड़ा जा सकता है। यह सकारात्मक प्रयास बहुजन संस्कृति को की पुनर्स्थापना करेगा।
बहुजन समाज को यह स्मरण रखना चाहिए कि राजनैतिक सत्ता स्वतंत्र पहचान स्थापित करने का प्रभावी माध्यम है, जो अल्पकालिक सुरक्षा प्रदान करती है। आर्थिक सत्ता बेहतर जीवन दे सकती है, किंतु समतामूलक समाज का सृजन केवल समतावादी संस्कृति से संभव है। इस संस्कृति की स्थापना में समतावादी पर्व निर्णायक भूमिका निभाते हैं। ये पर्व आपको मनु संस्कृति से विमुक्त कर समतावादी मूल्यों से जोड़ते हैं, आपकी स्वतंत्र पहचान को बल देते हैं, और दीर्घकालिक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक सत्ता व सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
अतः मनु पर्वों को दरकिनार कर बहुजन आंदोलन से जुड़ी तिथियों को महापर्व के रूप में अपनाएँ। यह आपकी स्वतंत्र पहचान को सुदृढ़ करेगा, जो आपके मान, सम्मान, स्वाभिमान और सुरक्षा की पूर्ण गारंटी है। नववर्ष इस संकल्प का प्रस्थान बिंदु बने, तभी बहुजन समाज अपने गौरवशाली भविष्य की ओर अग्रसर होगा।
स्रोत और संदर्भ :
- मान्यवर कांशीराम, “अपनी रेखा खींचें,” बहुजन संगठक, 10 मई 1990, अंक 5, वर्ष 8।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “धम्म और संस्कृति,” संकलित रचनाएँ, खंड 3, 1950।
- प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन संस्कृति का सृजन,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015।
- “दीक्षा दिवस का महत्व,” बहुजन संगठक, 14 अक्टूबर 1995।
- बसपा आधिकारिक बयान, “संस्कृति और पहचान,” 2020।