भारतीय समाज की विषमतावादी व्यवस्था, जो सदियों से अन्याय और उत्पीड़न की गहन अंधकारमयी खाइयों में जकड़ी रही, उसमें दलित समाज की करुण पुकार और हृदयविदारक रुदन आकाश को विदीर्ण करता रहा। यह पीड़ा, जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बहिष्करण की प्रचंड अग्नि में तप्त थी, उसकी गहन गूंज को गौतम बुद्ध, संत रैदास, कबीरदास, महात्मा जोतिबा फुले और छत्रपति शाहूजी महाराज जैसे युगद्रष्टा महान विभूतियों ने अपने हृदय की गहराइयों में अनुभव किया। इन महान युगपुरुषों ने इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने का संकल्प लिया, जिसने ‘सामाजिक परिवर्तन’ की प्रथम किरणें प्रस्फुरित कीं। तथापि, इस दिशा में समग्र, क्रांतिकारी और दूरदर्शी मार्ग का सूत्रपात किया परमपूज्य बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने, जिन्होंने मनुवादी व्यवस्था के क्रूर प्रहारों से सर्वाधिक पीड़ित अछूत समुदाय की मुक्ति को अपने जीवन का परम ध्येय बनाकर भारत में सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को त्वरित तीव्र गति प्रदान की। बाबासाहेब ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोणों से इस समुदाय के उत्थान हेतु गहन चिंतन, तपस्वी साधना और कर्मठ कार्य किया, जिसने भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम युग का प्रारंभ किया, जो समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय का प्रदीप्त दीपस्तंभ बन गया।
बाबासाहेब का युगप्रवर्तक योगदान
बाबासाहेब ने अपने जीवन को दलित समाज के सशक्तीकरण और मुक्ति के लिए एक तपस्वी की भांति समर्पित कर दिया। उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’, ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’, ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ और ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ जैसे संगठनों के माध्यम से दलित समाज को एकजुट कर सामूहिक शक्ति और आत्मसम्मान का बोध कराया। उनके द्वारा संपादित ‘मूक नायक’, ‘जनता’, ‘समता’ और ‘प्रबुद्ध भारत’ जैसे समाचारपत्र समाज में जागृति के प्रदीप्त दीपक बने, जो हाशिए पर पड़े लोगों की आवाज को विश्व मंच तक ले गए।
बाबासाहेब ने राजनीति को ‘मास्टर चाबी’ का रूप देकर इसे ‘सामाजिक परिवर्तन’ का सर्वोपरि साधन माना। भारत के संविधान के निर्माण के माध्यम से उन्होंने अछूतों, महिलाओं, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों संग सर्वसमाज के अधिकारों को अक्षुण्ण किया, जिसने भारतीय लोकतंत्र को समावेशी, न्यायपूर्ण और समतामूलक स्वरूप प्रदान किया। उनके जीवन का अंतिम और सर्वाधिक प्रेरक संदेश बौद्ध धम्म को अंगीकार करने का था, जो दलित समाज के लिए आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मुक्ति का प्रदीप्त पथ बना। यह संदेश न केवल एक धार्मिक परिवर्तन था, बल्कि समता, करुणा और बंधुत्व की विचारधारा का अमर प्रतीक था, जो आज भी मानवता को प्रेरित करता है।
महापरिनिर्वाण के बाद की चुनौतियां
बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनके आंदोलन की प्रदीप्त ज्योति मंद पड़ने लगी। यद्यपि दलित साहित्य के माध्यम से समाज अपनी व्यथा, पीड़ा और संघर्ष को कलमबद्ध करता रहा, किंतु राजनीतिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता प्रतीकात्मक और सीमित थी। राजनीति में संवैधानिक आरक्षण के बावजूद, दलित समाज की सत्ता और निर्णय निर्माण में भागीदारी शून्यता के साये में थी। मजदूरों, मजलूमों और महिलाओं की दशा हृदयविदारक थी, और सामाजिक-आर्थिक असमानता की खाई और गहरी होती जा रही थी। ऐसे युगसंधि पर भारतीय राजनीति के आकाश पर मान्यवर कांशीराम साहेब जैसे कालजयी नक्षत्र का उदय हुआ। उन्होंने बाबासाहेब के दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता को साधने का योजनाबद्ध, दृढ़संकल्पित और क्रांतिकारी संघर्ष प्रारंभ किया, जिसने दलित और बहुजन समाज को एक नई दिशा, पहचान और आत्मविश्वास प्रदान किया।
मान्यवर कांशीराम साहेब और बहनजी का प्रभामंडल
मान्यवर कांशीराम साहेब ने बामसेफ, डीएस-4 और अंततः बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के माध्यम से दलित और बहुजन समाज को एक सूत्र में पिरोया। उनके प्रारंभिक प्रयासों में ही उन्होंने बहनजी (सुश्री मायावती जी) जैसे कोहिनूर को खोजा और तराशा, जिन्होंने न केवल स्वतंत्र रूप से शासन किया, बल्कि बाबासाहेब के समतामूलक आंदोलन को यशस्वी नेतृत्व प्रदान कर एक नया इतिहास रचा। मान्यवर साहेब के सिद्धांत—‘जाति तोड़ो, समाज जोड़ो’, ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा’—ने दलित और बहुजन समाज में आत्मसम्मान, स्वावलंबन और सामूहिक चेतना का संचार किया। उनके अथक परिश्रम, संघर्ष और बहनजी के नेतृत्व में बसपा ने अपने गठन के मात्र एक दशक के बाद ही भारत के सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की धरती पर सत्ता स्थापित की। यह सत्ता केवल राजनीतिक विजय नहीं थी, बल्कि सामाजिक परिवर्तन, समावेशी शासन और बंधुत्व का प्रतीक थी। साथ ही, 1996 में बसपा ने राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भारतीय राजनीति के क्षितिज को आलोकित किया, और यह यात्रा आज भी अनवरत गतिमान है, जो समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की विचारधारा को सुदृढ़ करती जा रही है।
03 जून 1995: सामाजिक परिवर्तन का प्रभात
03 जून 1995 का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है, जब बहनजी ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। इस दिन से उत्तर प्रदेश में अम्बेडकरीकरण की युगप्रवर्तक शुरुआत हुई, जो ‘सामाजिक परिवर्तन’ का प्रभात बन गया। हाशिए पर धकेले गए समाज के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और महानायकों एवं महानायिकाओं को विश्व पटल पर स्थापित करने का कालजयी कार्य प्रारंभ हुआ। दलित समाज के भूले-बिसरे महानायकों और महानायिकाओं—जैसे गौतम बुद्ध, महात्मा फुले, छत्रपति शाहूजी और बाबासाहेब—के नाम पर स्मारक, संग्रहालय, पार्क, विश्वविद्यालय, कॉलेज और सड़कों का भव्य निर्माण हुआ। ये निर्माण केवल भौतिक संरचनाएं नहीं थीं, बल्कि दलित समाज के आत्मसम्मान, गौरव और सांस्कृतिक पुनर्जनन के प्रतीक थे। अम्बेडकर ग्राम योजना ने वंचित बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं—जैसे पेयजल, बिजली, सड़क और शिक्षा—का सूर्योदय किया। बैकलॉग भर्तियों और पारदर्शी नियुक्तियों ने दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के लिए रोजगार के द्वार खोले, जो अन्य राज्यों के लिए एक आदर्श नजीर बनी।
कानून का राज और जनकल्याण का स्वर्णयुग
बहनजी के शासन में उत्तर प्रदेश ने प्रथम बार संवैधानिक शासन का साक्षात्कार किया। कानून का भय इतना प्रबल था कि अपराधी या तो राज्य छोड़कर भागे या जेलों में स्वतः शरण लेने को विवश हुए। ‘जनता की सरकार, जनता के द्वार’ का आदर्श मूर्त रूप लेने लगा। बहनजी ने कठोर निर्देश दिए कि कमीशनर, कलेक्टर, एसडीएम और तहसीलदार आदि अधिकारी व कर्मचारी गांव-गांव जाकर जनता की समस्याओं का त्वरित समाधान करें। भूमिहीनों को जमीन का मालिकाना हक प्रदान किया गया, जिसने उन्हें सामाजिक और आर्थिक गरिमा प्रदान की। जनता ने प्रथम बार ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ का साक्षात अनुभव किया, जो सामंती सोच को चुनौती देता था। नौकरशाही को यह बोध हुआ कि वे जनता के मालिक नहीं, अपितु नौकर हैं। मूलभूत सुविधाओं और सेवाओं का विकेंद्रीकरण हुआ, जिसने जनकल्याण को एक नया आयाम दिया। उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर बहनजी ने ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति के तहत शासन देकर ‘अम्बेडकरमय भारत’ के स्वप्न को मूर्त रूप देने का ऐतिहासिक व कालजयी कार्य किया।
स्वास्थ्य, शिक्षा और बौद्ध विरासत का पुनर्जनन
बहनजी के शासन में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति हुई। अस्पतालों का कायाकल्प हुआ, सुपरस्पेशलिटी अस्पतालों और इंजीनियरिंग कॉलेजों की योजनाएं बनीं। ‘महामाया सचल अस्पताल योजना’ ने ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं को जन-जन के द्वार तक पहुंचाया, जिसमें डॉक्टर, नर्स और अल्ट्रासाउंड जैसे आधुनिक उपकरणों से युक्त एम्बुलेंस सेवा शामिल थी। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और सर्वांगीण विकास की लहर ने उत्तर प्रदेश को नवजीवन प्रदान किया।
बौद्ध विरासत से समृद्ध उत्तर प्रदेश में बौद्ध स्थलों का पुनर्निर्माण और नवनिर्माण हुआ। इन स्थलों को वैश्विक पर्यटन के केंद्र के रूप में स्थापित करने हेतु रेल, सड़क और हवाई मार्गों का रोडमैप तैयार किया गया, जिसने बौद्ध धम्म के प्रति वैश्विक जागरूकता को बढ़ावा दिया। यह कार्य न केवल सांस्कृतिक पुनर्जनन था, बल्कि बौद्ध दर्शन के समता, मैत्री और करुणा के सिद्धांतों को विश्व मंच पर स्थापित करने का ऐतिहासिक प्रयास था।
दलित साहित्य में सृजनात्मक क्रांति
बहनजी ने दलित साहित्य को नई दिशा और गौरव प्रदान किया। उनकी आत्मकथा ‘मेरे संघर्षमय जीवन एवं बीएसपी मूवमेंट का सफरनामा’ और ‘बहुजन समाज और उसकी राजनीति’ जैसे कालजयी साहित्यिक योगदानों ने दलित साहित्य को सृजनात्मक और समतामूलक स्वरूप प्रदान किया। दलित साहित्य, जो कभी केवल पीड़ा और प्रतिकार का दस्तावेज था, अब समतामूलक समाज के निर्माण का सशक्त मंच बन गया। बहनजी के लेखन ने दलित साहित्य को रुदन और क्रंदन से ऊपर उठाकर सृजनात्मकता का स्वर्णिम आलोक प्रदान किया। उनके शासन, जनकल्याणकारी कार्यों, विकास की परंपरा और आत्मनिर्भर शासन द्वारा जनहित में विधि निर्माण के इतिहास को किताबों में दर्ज कर दलित साहित्य को समृद्ध किया गया। 03 जून 1995 को सत्ता प्राप्ति के पश्चात शुरू हुआ यह परिवर्तन दलित साहित्य, राजनीति और संस्कृति में युगांतरकारी सिद्ध हुआ। दलित साहित्य अब केवल शोकगीत नहीं, अपितु हर्ष, समता, स्वावलंबन और सृजन का प्रदीप्त गान बन गया।
‘सामाजिक परिवर्तन दिवस’ का अमर गौरव
03 जून का दिन भारत के इतिहास में ‘सामाजिक परिवर्तन दिवस’ के रूप में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यह दिन गौतम बुद्ध, संत रैदास, कबीर, महात्मा फुले, छत्रपति शाहूजी, बाबासाहेब, मान्यवर कांशीराम साहेब और ‘सामाजिक परिवर्तन की महानायिका’ आदरणीया बहनजी के संघर्षों, तपस्याओं और कालजयी योगदानों का उत्सव है। बहनजी के अदम्य साहस, शौर्य, दृढ़संकल्प, निष्ठा और समर्पण ने उन्हें इस परिवर्तन की प्रदीप्त प्रतीक बनाया। परिवर्तन चौक जैसे प्रतीकों ने दलितों में आत्मबल का संचार किया और उन्हें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्वतंत्र चिंतन का वाहक बनाया। दलित समाज अब केवल अत्याचार सहने वाला नहीं, बल्कि सभी को सुरक्षा और समता प्रदान करने वाला सशक्त अगुवा बन गया। इस दिन की गूंज न केवल भारत, बल्कि विश्व के राजनीतिक और बौद्धिक मंचों तक पहुंची, जहां दलित समाज की आत्मनिर्भर अस्मिता को स्वीकार किया गया। यह दिन सामाजिक परिवर्तन, लोकतांत्रिक सशक्तीकरण, आर्थिक उन्नति, करूणा और बंधुत्व का प्रतीक है। यह दलित समाज की आत्मनिर्भरता, गौरव और राष्ट्र निर्माण में उनकी सशक्त भागीदारी का महोत्सव है।
सामाजिक परिवर्तन दिवस: समतामूलक भविष्य का प्रदीप्त आलोक
‘सामाजिक परिवर्तन दिवस’ केवल एक तिथि नहीं, अपितु समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के स्वप्न का साक्षात्कार है। यह दिन हमें बाबासाहेब के दर्शन, मान्यवर कांशीराम के संघर्ष और बहनजी के यशस्वी नेतृत्व को स्मरण कराता है। 03 जून का यह ऐतिहासिक दिन प्रत्येक भारतीय को समतामूलक समाज के निर्माण हेतु प्रेरित करता है, जहां हर व्यक्ति को सम्मान, समान अवसर और स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हो। यह दिन भारत, दलित साहित्य, राजनीति और समस्त मानव समाज के लिए गौरव, हर्ष और प्रेरणा का स्रोत है, जो हमें एक ऐसे भविष्य की ओर अग्रसर करता है, जहां असमानता की छाया न हो, केवल समता, करुणा और बंधुत्व का प्रदीप्त आलोक हो। यह दिन हमें स्मरण कराता है कि सामाजिक परिवर्तन का यह युगप्रवर्तक आलोक अनवरत जलता रहेगा, जो भारत को विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक अमर संदेश है।
(03.06.2025)