भारतीय संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें विविधता को संरक्षित करने और सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करने पर जोर दिया गया है। न्यायपालिका, संविधान की रक्षक के रूप में, समाज के हर वर्ग में विश्वास जगाने की जिम्मेदारी रखती है। हालांकि, कोलेजियम प्रणाली के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति में दलितों, आदिवासियों, और पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की नगण्य भागीदारी ने यह सवाल उठाया है कि क्या आरक्षण इन समुदायों को न्यायपालिका में उचित प्रतिनिधित्व और विश्वास दिलाने में सहायक हो सकता है। यह लेख इस संदर्भ में विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
(A) कोलेजियम प्रणाली और उसकी सीमाएं
कोलेजियम प्रणाली, जो भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अपनाई जाती है, संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के तहत विकसित हुई है। यह प्रणाली स्वतंत्रता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने का दावा करती है, लेकिन इसकी आलोचना अक्सर अपारदर्शिता और अभिजनवादी चरित्र के लिए होती है। आलोचकों का तर्क है कि कोलेजियम में सामाजिक विविधता का अभाव है, जिसके कारण दलित, आदिवासी, और ओबीसी समुदायों का प्रतिनिधित्व नगण्य रहता है। उदाहरण – सर्वोच्च न्यायालय के 75 साल के इतिहास में केवल कुछ ही दलित न्यायाधीश नियुक्त हुए हैं, जैसे जस्टिस के जी बलाकृष्णन जो 2000 में सुप्रीम कोर्ट में जज बने और फिर 2007 में सीजेआई भी बने। जस्टिस बी.आर. गवई, जो 2019 में नियुक्त हुए।
(B) संविधान और सामाजिक न्याय
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, और 46 सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को समानता और अवसर प्रदान करने की गारंटी देते हैं। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा में जोर दिया था कि न्यायपालिका सहित सभी संस्थाओं में वंचित वर्गों की भागीदारी जरूरी है ताकि लोकतंत्र सही मायने में समावेशी हो। न्यायपालिका में आरक्षण की अनुपस्थिति इस संवैधानिक दृष्टिकोण से विचलन है।
(C) बहुजन आरक्षण का महत्व
आरक्षण राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा है। यह हाशिए के समाजों को मुख्यधारा से जुड़कर राष्ट्रनिर्माण में भागीदार बनने का सुअवसर देता है। आरक्षण शासन, सत्ता एवं देश की आर्थिक व्यवस्था में विविधिता को सुनिश्चित करते हुए लोकतंत्र मजबूत करता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है आरक्षण देश की सभी संस्थाओं में लोगों के विश्वास को मजबूत करता जोकि किसी राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के अनिवार्य है। संक्षेप में बहुजन आरक्षण में महत्व को निम्नलिखित तीन बिन्दुओं के माध्यम से भी समझ सकते हैं।
(I) प्रतिनिधित्व और विविधता
न्यायपालिका में दलितों, आदिवासियों, और ओबीसी का प्रतिनिधित्व उनकी समस्याओं को समझने और संवेदनशील निर्णय लेने में मदद करेगा। उदाहरण के लिए, सामाजिक भेदभाव या आरक्षण से जुड़े मामलों में इन समुदायों के न्यायाधीश बेहतर परिप्रेक्ष्य प्रदान कर सकते हैं।
(II) विश्वास का निर्माण
जब लोग न्यायपालिका में अपने समुदाय के प्रतिनिधियों को देखते हैं, तो उनका विश्वास मजबूत होता है। वर्तमान में, इन समुदायों में यह धारणा प्रबल है कि न्यायपालिका अभिजन वर्ग के हितों को अधिक प्राथमिकता देती है। आरक्षण इस धारणा को बदलता है।
(III) लोकतंत्र की मजबूती
विविधता न्यायपालिका में लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है। यह सुनिश्चित करता है कि न्याय केवल कानूनी दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के आधार पर भी हो।
(D) चुनौतियां और समाधान
आरक्षण के विरोधी वकालत करते हैं कि यह योग्यता से समझौता कर सकता है, क्योंकि कोलेजियम प्रणाली “मेरिट” पर आधारित है। हालांकि, यह तर्क विवादास्पद है, क्योंकि मेरिट की परिभाषा अक्सर सामाजिक विशेषाधिकार से प्रभावित होती है। समाधान के रूप में, आरक्षण को योग्यता के साथ संतुलित करने के लिए एक पारदर्शी प्रक्रिया विकसित की जा सकती है, जैसे विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम।
निष्कर्ष
न्यायपालिका में दलितों, आदिवासियों, और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण संविधान के सामाजिक न्याय के वादे को पूरा करने और लोकतंत्र को सुदृढ़ करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। कोलेजियम प्रणाली में सुधार और विविधता को बढ़ावा देना न केवल इन समुदायों का विश्वास जीतेगा, बल्कि न्यायिक प्रणाली को अधिक समावेशी और संवेदनशील बनाएगा। यह समय की मांग है कि संविधान के मूल्यों को व्यवहार में लाया जाए ताकि न्यायपालिका वास्तव में “सबके लिए न्याय” का प्रतीक बन सके।